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________________ २४४ प्रश्नध्याकणस्त नरकतिर्यग्योनिः गच्याऽसम्व्यकालममाणा, वनस्पत्यपेक्षयाऽनन्तकालप्रमाणा, तत्रोत्पत्तिरूपा 'पति' वर्धयन्ति, 'तेण य अलिएग' तेन चालीकेन-असत्य भापणकर्मणा 'समणुबद्धा' समनुादा धन्ध प्राप्ता 'आइट्टा' आविष्टा:आश्लिप्टाः 'पुणभवधयारे ' पूर्वमान्धकारे = पुन' पुनर्नन्मनायमारस्वस्मिन् भीमे-भयंकरे भमति ' भ्रमन्ति-मृपाभापिणो जीना जन्मजरामरणपोरनिविड़ दुःखान्धकारकान्तारे निपतिताः सन्तो विविधानि क्यान्यनुभपतीत्यर्थः । तथा कयचित् इह मनुष्यलोके समुत्पमा अपि 'दुग्गडपसहिगुनगया' दुर्गतिवसति मुपगतारलेशबहुलस्थिति माता 'दीमति' श्यन्ते । अय भाषा-मृपाभाषिणो नरकतिर्यग्योनिपु समुत्पयन्ते । अथ कवशिन्नरकादितो निस्सृत्य मनुष्यशरीर तथा तिर्यंच योनिको (वति) बढाते है । अर्थात् मृपावादी जन मृषा भापणसे उत्पन पापों के उदयसे पल्यप्रमाणघाली तिर्यच योनिको तथा उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम प्रमाणकालवाली नरकगतिको अपनी उत्पत्ति स्थान बनाते हैं । वहा वे सख्यान काल, असख्यात काल एवं वनस्पति अपेक्षा अनतकाल तक रहते है। (तेण य अलिएण) उस अलाक भापणकर्मसे (समणुबद्वा) बध को प्राप्त हुए (आइटा) क्षीर नीरका तरह परस्पर एक क्षेत्रावगाहरूप सबध से विशिष्ट हुए वे जीव (पुणन्भ बधयारे भीमे ) पुनः पुनः जन्मरूप भयकर अधकार में (भमति) भ्रमण करते हैं । अर्थात् जो मृरावादी जन होते हैं वे जन्म, जरा, मरण रूप घोर गाढ अधकारमें पतित हो कर विविध कप्टों को भोगा करते हैं । तथा (दुग्गइवसहिमुवगया तेय दीसति) यदि वे कहाच किसी भी तरहसे इस मनुष्यलोकमे उत्पन्न हो जाये तो भी क्लेश बहुल स्थिति ant “निरयतिरियजोणि" न२७ तथा तिर्य य योनिन “वडति " पधारे છે એટલે કે મૃષાવાદી લેકે અસત્ય વાણીથી જનિત પાના ઉદયથી પત્ય પ્રમાણુવાળી તિય ચ યોનિને તથા ઉત્કૃષ્ટ તેત્રીસ સાગરોપમ પ્રમાણ વાળી નરકગતિને પિતાની ઉત્પત્તિનું સ્થાન બનાવે છે ત્યાં તેઓ સખ્યાતકાળ; मस ज्यात अने वनस्पतिना अपेक्षा अनत सुधी २७ छ " तेण य अलिएण" ते सत्यमापशु भाथी " समणुबद्धा गधायेा “आइट्ठा " हूध અને પાણીની જેમ પરસ્પર એક ક્ષેત્રાવગાહરૂપ સ બ વી વિશિષ્ટ થયેલ તેલ "पुणन्भधयारे भीमे" श शने सन्म सेवा ३५ ४२ घरमा "भमति" प्रभ४२ छ, सटो, भृषावाही सोजन्म, २, मन भ२९१३५ गा८ मघारमा ५डीने विविध उधोने सास पाउछ तथा “दुग इवसहिमुवगया तेय दीसति" ने उहाय तेमा पाहणे मनुष्य सभा
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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