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________________ Gરર कीडशो मुनिरिक वा नाराधयती ? त्याद-'जे रि ययादि मूलम्-जे मि य पीढफलगसेनामंथारगपत्थपायकंबल दडगरयहरणनिसेज चोलपटगमुहपातिगपाय पुंलणाइभायण भडोवहिउबगरणं असविभागी असगहरु, नातेणे व वइतेणे य रूबतेणे य आयारतेणे य भावतेणे य लवकरे झंझकरे कलहकरे वेरकरे विकहारे असमाहिकर सया अप्पमाणभाई सयय अणुवद्धवेरे य निच्चरोसी से तारिसए नाराहए वयमिण ॥ सू०३॥ टीका-'जेविय' योऽपि च मुनिः पीठफलगनेज्जासथारगपत्थपायकवलचोलपट्टगरयहरणमुहपोतियपायपूरणाइभायणभोरटिउमगरण ' पीठफलरुशय्यासस्तारकास्त्रपानरमलचोलपहरजोदरणमुसरनिकापादपोछनादि - भाजनभाण्डोपध्युपकरणम्-एपणागुणविशुद्धिलब्ध पीठकलकादिक लब्ध्वेति गम्यते, तस्य अस विभागीअविभागकारी-आचार्यग्लानादिभ्य पीठफळ कादीन अविभज्यव सार्थबुद्धया सपमुभोक्ता भवति स इद व्रत नाराधयतीत्यग्रेण किसीकी युगली नहीं करना चारिये। तथा (मच्छरिय) साधु को इयाभाव का भी परित्याग कर देना चारिये ॥स-२॥ किस प्रकार का मुनि इस व्रत की आराधना नहीं कर सकता है इस यात को कहते है-'जे विय' इत्यादि। टीकार्थ-(जे वि य) जो मुनि रापगागुण की विशुद्धि से प्राप्त पीठ, फलक, शय्या, सस्तारक, वस्त्र, पात्र, करल, दड, रजोहरण, नियघा, चोलपट्टक, सदोरकमुखवस्त्रिका, पादपोञ्छन आदि, तथा भाजन, भाड, उपधि, उन सब उपकरणों को प्राप्त करके उनकाविभाग " साधुणे धनी याही वा नासनही तथा "मच्छरिय" साधुमे ઈર્ષ્યાભાવને પણ પરિત્યાગ કરવો જોઈએ તે સુ-૨ u કેવા મુનિ આ વ્રતની આરાધના કરી શકતા નથી તે વાત હવે સત્ર ४२ ४ छ-"जे वि य" Vत्याही ट -"जे वि य" २ भुनि सपा शुशुना विशुद्धिथी H ये थी ५०४, शच्या सस्ता२४, पक्ष, पात्र, उपस, ६७ २०२५, निषधा, यास५४, ३१२ સહિતની મુહપત્તિ, પાદછન આદિ તથા ભજન, ભાડ, ઉપનિ એ બધા
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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