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________________ - सुदर्शिनी टीका भ० ३ सू०२ अदत्तादानविरममस्वरूपनिरूपणम् ७२१ वर्जनीयम् । तथा-परमाणसेण' परव्यपदेशेन वालग्लानादीना निमित्तेन 'जच' यच्च अशनादिर, 'गेण्हेइ' गृहातियायकारक , तदन्यौपभोक्तव्यम् । वालग्लानादिनिमिचमानीत संस्तु यथाशिष्ट भवेन् , तथा तद् तस्तु स्वामिनिदेशेन सभोक्तव्यमित्ययः, 'परस्स' परस्य तथा 'ज च' यच्च ‘सुकय सुकृत= पुण्यादिक 'नासेइ' नाशयति, अपहनुते, येन रचनादिना परकृतपुण्यादेरपातिभवति, तद् तिव्यमित्यर्थः, तथा-'दाणस्स य' दानस्य च ' अतराइय' अन्तरायिकम् येन वचनादिना दानान्तगयो भवेत्तद वर्जनियम् , तथा-'दाणविषणासो' दानचिमणाश:-येन पचनादिना दानस्य विनाशो भवति, तद् वर्जनीयम् , तपा-'पेसुन्न चे' पैशुन्य परोक्षे परदोपाविष्करण 'चुगली' इति भापा प्रमिह चेत्र ‘मन् रित्त च ' मात्सर्यम् ईप्यो च वर्जनीयम् ॥ सू० ॥ घातें भी साधु को नोड देनी चाहिये। तथा-(परचवण्सेण ज च गेण्हति) थाल ग्लान आदि के निमित्त से जो अशन आदि वैयावृत्यकारक साधु लाया होवे वर इसरे साधुओं को अपने उपयोग में नहीं लेना चाहिये। तात्पर्य इसका यह है कि पाल ग्लान आदि अवस्थापन साधुजन के लिये जो वस्तु लाई गई हो वह उनके उपयोग से यदि बच जाय तो वह उस वस्तु के स्वामी की आज्ञा लेकर ही दूसरे साधुओं को अपने उपयोग में लानी चाहिये । तया (परस्म ज च सुकय) जिस वचन से दूसरे के सुकृत आदि पुण्यकों का अपहनुव होता हो ऐसा वपन साधु को त्याग कर देना चाहिये। तथा (दाणस्स अतराइय) जिस वचन से दान में अतराय हो जावे तो ऐसा वचन भी नहीं कहना चाहिये। तथा (दाणविप्पणासो) जिस वचन से दान का विनाश होता हो ऐसा वचन भी नहीं बोलना चाहिये । तथा (पेसुण्ण ) साधु को न तया " परववएसेण ज च गेण्हति " मासान मानि निमित्त આહાર આદિ વિયાવૃત્યકારક સાધુ લાવ્યા હોય તે બીજા સાધુઓએ પિતાના ઉપયોગમાં લેવો જોઈએ નહી તેનું તાત્પર્ય એ છે કે બાલ ગ્લાન આદિ અવસ્થાપન્ન સાધુજનને માટે જે વસ્તુ લાવવામાં આવી હોય તે તેઓએ વાપર્યા પછી વયે તે તે વસ્તુના માલિકની આજ્ઞા લઈને જ બી સાધુઓએ तनचाताना पयोगमा देवी से तय " परस्स ज च सुरुय" क्य નથી બીજના સુવ્રત આદિ પુન્ય-ર્મોન ના થતો હોય તેવા વચનો સાધુએ બોલવા જોઈએ નહી, એટલે તેવા વચને બોલવાનું સાધુએ બઘ કરવું ASI तथा " दाणस्स अतराइय" २ क्यनथी हानमा मत। नरे सेवा क्यने ५५ वा मे नही तय "दाणविषयासो" २ वयनाथी हानना विना य य ते वयना पर मालवा मे नही तया "पेसु न
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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