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সপ্নাঞ্চল वरसासणमिणं आघविय सुदेखियपसत्थ तइय सवरदारं समत्त तिवेमि ॥ सू० ११ ॥
॥इय पण्हावागरणे तइयं संबरदार समत्त॥ टीका-एव पूर्वोक्तमकारेण 'इण' इद 'सरस्स' समरस्य 'दार' द्वारम् अदत्तादानविरमणनामा तृतीय द्वारमित्यर्थः, ' सम्म' मम्परु 'चरिय' चरित सत् ' होइ' भाति 'मुपणिहिय ' सुमणिहित-समाराधितम् । तथा-'. मेहि ' एभि पचहि । पिञ्चभिरपि 'कारणेहि कारणे: भावनाभिः, की दृशैः कारणैः ? इत्याह-' मणवयणकायपरिरक्खिएहि ' मनोरचनकायपरिरक्षितःमनोवाकार्यः परिरक्षितैः,मनोवाकाययोगयुक्ताभिः पञ्चभावनाभिरित्यर्थः, 'निच्च' नित्यम् ' आमरणत च ' आमरणान्त-मरणपर्यन्त च ' एस जोगो' एप योगा अदत्तादानविरमणरूपो योग ‘णेययो' नेतव्यः पालनीय, 'घिइमया' धृतिमता ' मइमया' मतिमता । कथ भूतोऽय योगः १ इत्याह- अणासो' अना
अघ सूत्रकार इस अध्ययन का उपसहार करते हुए करते हैं'एवमिण' इत्यादि।
टीकार्थ-(एव) पूर्वोक्त प्रकार से (इण) यह (सवरस्स दार अदत्तादानविरमण नाम कातृतीय सवरद्वार (सम्म चरिय) अच्छी तरह से पाले जाने पर (सुपणियि) सुरक्षित (होइ) हो जाता है। इसलिये (मणवयणकायपरि रक्खिपहिं ) मन, वचन, काय इन तीन योगों से अच्छी तरह सुरक्षित कीये गये ( इमेहिं) इन ( पचहिं विकारणेहिं ) पाच भावना रूप कारणों से (निच्च ) सदा (आमरणत च) जीवन भर तक ( एस जोगो) यह अदत्तादानविरमण रूप योग (घि इमया मइमया) चित्त स्वस्थता से तथा हेयोपादेय की विवेकता से
सूत्रा२ मा अध्ययन पसार ४२ता -" एव मिण " त्या:--
साथ-" एव" पूरित मारे " इणं " मा " सवरस्सदार " सन्ता हान विरभा नामनु श्री स१२६२ “सम चारिय " सागरीत पाणपामा भाव तो " सुपणिहिय' सुरक्षित थ य छे तेथी "मणवयणकाय परिरक्सिएहि" भन, क्यन मने जायाना योगाथी सारी रात सुरक्षित राये। " इमेहिं" मा " पहिं वि कारणेहि " पाय सापना३५ ॥२॥थी “निच्च" सहा " आमरण तब 'वन ५ "एसजोगो" मा महत्ताहान विरभ १३५ योग "घिइमया मइमया" यित्तनी सस्था तथा व्यापायना विवेश्या