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________________ २४४ प्रभाकरणसूत्रे , } " " , अपरिस्रावी = कर्मजलम पेशरहितत्यात्, 'असकिलिट्ठी ' अलि असमाधिमा ववर्जितत्वात् 'सुद्धो 'शुद्धः कर्ममलनर्जितत्वात् 'मव्यजिणमणुण्णाओ ' सर्व जिनानुज्ञातः - सकमाणि हितकारकत्वात्सर्वे रईद्भिरङ्गीकृतास्ति । एवम् उक्तमकारेण ' पचमं सरदार ' पचमं सवरद्वार ' फासिय ' स्पृष्ट कायेन, 'पालिय' पालित - सततमुपयोगेन सेविनम्' सोडिय' शोधितम् - प्रतीचा रवर्जनेन 'तीरिय' दीर्ण- तीर प्रापित सम्यपालनात् किट्टिय कीर्तितम् स्तुनम् = कल्याणका रक्त्वात् ' आराहिय' आराधितम् - निकरण नियोगे सम्यगाचरितत्वात्, 'आणाए आनया-सर्वज्ञवचनेन 'अणुवालिय' अनुपालित = दृढमनस्कताच्च है, (अपरिस्साई ) विन्दुमात्र भी कर्मजल इसमें प्रविष्ट नहीं हो पाता है इसलिये यह अपरिस्रावी है । (असकिलिहो ) असमाधि भाव से रहित होने के कारण यह असक्लिष्ट है, और (सुद्रो) कर्ममल से वर्जित होने के कारण यह शुद्ध है । ( सव्यजिण मणुण्णाओ ) इससे समस्त प्राणियों का हित हुआ है और आगे भी हिन होगा ऐसा जानकर ही समस्त अरिहतभगवतों ने इसे अगीकृत किया है । ( पचम सवरदार) इस उक्त प्रकार से जो इस सवरद्वार को ( फासिय) अपने शरीर से आचरित करते है ( पालिय ) निरन्तर उपयोगपूर्वक इसका सेवन करते है, ( सोहिय ) अतिचारों से इसे रहित करते है, (तरिय ) पूर्णरूप से इसका सेवन करने है, (फिटिय) दूसरो को' इसके पालन करने का उपदेश देते हैं ( आराहिय ) तीनकरण तीन योग से इसकी भली प्रकार से अनुपालना करते है, (अणाए अणुपालिय भवइ) उनके द्वारा यह योग तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा अनुसार ही पालित तेनाथी पायनो स्रोत छिन्न थर्ध लय छे तेथी ते सच्छिद्र छे, "अपरिस्साई " બિન્દુ જેટલુ પણ કરેંજળ તેમા પ્રવેશ પામી શકતુ નથી, તે અપચ્ચિાવી छे, " असकिलिठ्ठो " समाधिलावधी रहित होवाने असो ते अस डिसष्ट छे भने ' सुद्धो " भज विन्ननु होवाथी ते शुद्ध छे " सव्वजिणमणुण्णाओ” તેનાથી સમસ્ત પ્રાણીઓનુ હિત થયુ છે અને ભવિષ્યમા પશુ હિત થશે એવુ જાણીને જ સમસ્ત અરિહંત ભગવાનેાએ તેને માન્ય કરેલ છે एब पचम सवरदार આ સૂત્રમા કહ્યા પ્રમાણે જે આ પાચમા સવરદ્વારનુ “ા सिय' पोताना शरीरथी आयर अरे छे, 'पालिय" निरन्तर उपयोग व तेनु सेवन रे छे, 'सोहिय " अतियारोथी तेने रहित उरे छे, 'तीरिय पू रीते तेनु सेवन उरे छे "किहिय" मन्यने तेना पासननो उपदेश आये छे " आराहिय "" ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચેાગથી સારી રીતે તેની આરાધના કરે छे, आणाए अनुपालिय भवइ ” તેમના દ્વારા તે ચાગનુ તીર્થંકર પ્રભુની " "" "" ८८
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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