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________________ २५० प्रश्नयाकरणसूत्र हृदयस्य मनमश्च दापकानिन्नापजनकानि 'जानी' यापनीव-जीवन पर्यन्त 'दुरदराइ' दुरुद्वराणि दुम्तराणि 'पाति' प्राप्नुवन्ति । पुनः कि मित्याह-'अणिद्वापरफरसायणतज्जगणिन्मगठीणपयणविगगा' अमिष्टग्वरफरुपवचनतर्जननिर्भत्सनदीनपचनरिमननः तत्र अनिप्टेन अप्रियेण सरपरुषेणअतिकठोरेण पचनेन यानि तर्जनानिहरे नीच! कथमेव करोपि' इत्यादि लक्ष णानि निर्भर्त्सनानि='अरे दुपटकमकारिन्-गृहानिम्सर दृष्टिपथावा' इत्यादि रूपाणि, वैर्दीन पदन-मुख विकृत-पिपातयुक्त च मनो येपा ते तथा 'कुभोयणा' कुभोजनाः कुत्सितम्भरसपिरस भोजन येपा ते तथा तुन्छान्नाहारिणः 'कुनाससा' कुवाससः मुचैलिनः 'कुपमहीम' कुवसतिपु-कुत्सितस्थानेषु 'फिलिस्सता' नही रुचने वाले तथा (स्यियमणमगाट )दय और चित्त को सता पजनक होते हैं ऐसे वचन (जायज्जी) जोवन पर्यंत ( दुरुद्धराइ) जो इन्हें आपात पहुँचाने वाले होते है उनको ( पावति ) प्राप्त करते हैं अर्थात् सुना करते हैं । फिर क्या सो करते है-(अणिद्वग्वरफरुस वयण तज्जणणिन्भच्छण दीणवयणविगणा) ऐसे ये लोग अप्रिय, अतिक ठोर वचनो से तथा-" रे नीच ! ऐसा क्यो करता है" इत्यादिरूप तर्जना से, " ओ दुष्टकर्मकारिन् ! तु मेरे घर से बाहिर निकलजामेरे साम्हने मत आ-यहा से दूर हटजा" इत्यादि हृदय विदारक निर्भसना से अनाहत हुए ये दीन वदन और विकृत मन वाले तथा (कुभोयणा ) अपनी जिन्दगी भर कभी अच्छा भोजन नहीं पाने वाले तुच्छाहारी तथा (कुवाससा) मैले कुचले वस्त्र पहनने वाले तथा (कु वसहीसु) गन्दी जगहों में रह कर (किलिस्सता) अनेक कष्टो का हत्य मने बित्तमा सता५ पहा ४२नार डाय तथा " दुरुद्धराइ"२ तेभने माधात ना२ डाय छे सेवा क्यनी "जावजीव" वे त्या सुधी तमा " पावति" प्रास ४२ छ भेटले. सालण्या ४२ पक्षी blog शु ने छ त हे छ- अणिदूसरफहसायणतज्जणणि भच्छणदीणग्यणचिमणा " तवा એ લેકે અપ્રિય, અતિ કઠેર વચનેથી તથા “ અરે નીચ! આવું કેમ કરે છે?” ઈત્યાદિ પ્રકારની તર્જનાથી, “હે દુષ્ટકર્મકારિન ! તુ મારા ઘરમાથી બહાર નીકળી જા–મારી સામે આવીશ મા-અહીથી દૂર ચાલ્યો જા” ઈત્યાદિ હદય ભેદક નિર્ભર્સનાથી અનાદર પામેલ તે દીન વદનવાળા તથા વિકૃત મન वा तथा " कुभोयणा" तथा पन पर्यन्त सा३ मारनास नही ४२ना२। हुस। डानुसार प्राप्त ४२नारा तथा “कुवाससा" मेवा तथा साटेसा तूटेसा पत्र पाउनास तथा " कुवसहीसु" महासामा २ .
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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