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________________ सुदशिनी टीका १२ सू० १५ मृपावादिना नरकादिप्राप्तिरूपफलनिरूपणम् २५१ 'क्लिश्यन्त =सन्तप्यमाना अतएर 'पन्चपिडलदुरखसयसपलित्ता' अत्यन्त विपुलदुःखशतसमदीप्ता अत्यन्त विपुलानि विशालानि यानि दुःखशतानि तैः सम्मदीप्ताः-प्रतप्ता'=' उनलभति' उपलभन्ते प्राप्नुवन्ति ‘नेवसह' नैवसुख 'नेवनियुट' नैपनिति मन स्वास्थ्य, किन्तु दुःखमेवानुभवन्तीति भावः । एव मृपापादफलमुक्तम् ॥ १० १५॥ उठाते हुए ( अवतविउलनुक्समयसालित्ता ) वटत अधिक कठिन से फठिन सैकड़ो दु खो से मन्तप्त बने हुए ये लोग (नेवसुह) न तो कभी सुग्व पाते ह और ( नेवनिगुट) न कभी निवृति-मनः स्वास्थ्य-शाति को (उचलभति) पाते ह अर्थातू-रातदिन दुःख भोगा करते हैं । इस प्रकार यह मृपागद का फल कहा है। भावार्य-मृपाबाद का फल स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं किमृपवादीजन कभी भी अपने जीवन में मच्ची सुखशांति नही पा सकते हैं। ये मृपावाद से उपार्जित पापकर्म के उदय से मरकर तिर्यच एव नरफगतिके अत्यत कठिन दुःखाको भोगा करते हैं । तिर्यच योनिमे रहने वाले जीवो की आयु उत्कृष्ट तीन पल्य की वनस्पति की अपेक्षा अनतकाल की और नरक में रहने वाले जीवो की उत्कृष्ट तेतीस सागर प्रमाण है। इतने काल तक यहा रहकर फष्ट परम्पराओ का अनुभव वे फरते रहते है। फिर भी जो पाप कर्म भोगने से अवशिष्ट रहता है उसे वे यहा से निकालकर किसी तरह भी मिली हुई मनुष्य पर्याय में भोगते है । यहा जो इन्हें मनुष्य पर्याय प्राप्त होती है वह बिलकुल जघस्सता " भने उल्टो सन २ता “ अच्चतविउलदुक्ससयसपलिता" ઘણુ જ વધારે આકરામા આકરા સેકડે ટુ ખોથી દુખી બનેલા તે લોકો ને सुह" उ ५ सुभ प्रास उरत नथी “नेव निव्नुइ" ही पनिवृत्ति भननी शन्ति “बलभति" मनुसयता नथी भेटले हिनशत लोगવ્યા કરે છે, આ પ્રકારનું મૃષાવાદનું ફળ કહેલ છે ભાવાર્થ–મૃષાવાદનુ ફળ બતાવતા સૂત્રકાર હે છે કે-મૃષાવાદી વ્યક્તિ પિતાના જીવનમાં કદી પણ સાચા સુખ રાતિ પામી રાતે નથી તેઓ મૃષા વાદથી ઉપાર્જિત પાપકર્મોના ઉદયથી મરીને તિર્યંચ અને નરકગતિના અત્યંત કઠિન દુખ ભોગવ્યા કરે છે તિર્થં ચ એનિમા જન્મ પામતા નુ આયુષ્ય ઉત્કૃષ્ટ ત્રણ પત્યનુ અને વનસ્પતિની અપેક્ષાએ અન તકાળનુ અને નરકની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટ તેત્રીસ સાગર પ્રમાણનુ હોય છે એટલે સમય ત્યા રહીને તેઓ કષ્ટ પર પરાઓને સહન કરે છે, ત્યાર પછી પણ જે પાપકર્મો ભેગવવાના
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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