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________________ ८८० प्रश्नव्याकरण , चणे 'अकिञ्चनः - निर्द्रव्यः, 'छिन्नगवे ' छिन्नग्रन्थः- पायाभ्यन्तरपरिग्रहरहितः, तथा - ' निरुपलेवे ' निरुपलेपः = रागद्वेपनर्जितः, तथा-' सुनिमलनरकममायण चैव सुविमल पर कांस्य भाजनमित्र = मुरिमल = निर्मल यद्वारकास्यभाजन तदिव 'विमुत्ततोए' विमुक्ततोयः=जलले परहित, श्रमणपक्षे सम्बन्ध हेतुम्नेहर्जित इत्यर्थः तथा - ' सखे विन निरब्जणे' शख इन निरन्जनः, अय भाग:- यथा शखो निर- जनोऽर्थाच्छुको भरति तथा साधुरपि निरव्जनः रागादिकृष्णतारहितो भवति । 'विग रागद समोहे ' विगतरागद्वेपमोह, निगतानष्टा रागद्वेष मोहाः यस्मात् सः तथा 'कुम्मो इझ' कर्म इव दिए गुत्ते' इन्द्रियेषु गुप्त - यथा कच्छपो ग्रीवादि स्वाङ्गानि सगोप्य गुप्तो भरति तथैव साधुरपि निपयेभ्य इन्द्रियाणि सगोप्य गुप्तो भनति । तथा-'जचकणग व' जात्यकनकमिवशुद्धकाञ्चनमिव 'जाय रूवे ' जातरूप. = रागादिक्षाररहितत्वात्, स्वस्वरूपसम्पन्नः, तथा 'पुखरपत्त व ' अकिंचन भाव से युक्त, (छिन्नगये) बाह्य और आभ्यतर परिग्रह से वर्जित, बना हुआ वह साधु ( निरुपलेवे ) राग और द्वेष से निर्लिप्त बन जाना है और (सुविमलवरक सभायण चेव विमुक्ततोए) निर्मल कांस्यपात्र की तरह जल से मुनिपक्ष में सम्बन्ध के हेतुभूत स्नेह से रहित होता हुआ (सखेविव निरजणे ) शख की तरह निरजन- शुक्ल अर्थात रागादिक की कृष्णता से रहित हो जाता है । इसिलिये वह (विगयरागदो समोहे) राग द्वेष एव मोह से रहित हो जाता है तथा ( कुमो इव इदिय मुगु ) कूर्म - कच्छप की तरह इन्द्रियगुप्त कहलाता है अर्थात् जिस प्रकार कच्छपग्रीवादिक अपने अवयवों को छुपाकर शरीर में गुप्त हो जाता है उसी प्रकार वह साधु भी विषयों से इन्द्रियो को हटाकर सुरक्षित बन जाता है । तथा (जवण व जाग्ररुवे) लावधी युक्त, " छिन्नगथे" मात्र भने आल्यन्तर परिवहथी रडित मनेस ते साधु "निरुवलेवे" राग अने द्वेषथी सक्षिप्त जनी लय छे, भने “ सुबिमलवर -कसभायणं चैव विमुततोए' निर्माण जसाना पात्रथी प्रेम भजथी रहित भुनियक्षे असधना हेतुलूत स्नेड्थी रडित-थ ने " सखेविव निरजणे " शमना देवी निरन्न-सह भेटले } " विगयरागदो समोहे " राजाहिनी आजाराथी रहित થઈ જાય છે, તથા कुमो इव इदियसुगुत्ते ' ...” કાચમાના જેવા ઈન્દ્રિયગુપ્ત કહેવાય છે. એટલે જેમ કામા પેાતાના ગ્રીવાદિક અવયવેશને શરીરમા છુપાવીને શુસ થઇ જાય છે તેમ સાધુ પણ વિષયેામાથી ઈન્દ્રિયાને હટાવીને सुरक्षित मनी लय छे तथा “जन्चकण व जायरूवे " शुद्ध सुवानी भ ९८
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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