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________________ प्रभव्याकरण टीका--' तस्स' इत्यादि। 'तस्स' तस्य प्रमिद्धस्य 'परमसा अयम्प' प्रथमम्य व्रतस्य = अहिंमा व्रतस्य 'इमा पच ' इमाः पञ्च 'भारणाओ' मानना-माप्यते गाम्यते आत्मा याभिस्ताः ईर्यासमित्यादयः इति मन्ति । किमर्थ पन मापना भवन्ती? -त्याह - ' पाणाडवायरमणपरिरक्षणयाए । माणातिपात-चिरमणपरिरक्ष णार्थाय - माणातिपातचिरमणलभणरय प्रथममहानतम्य परिरक्षणार्थाय । तत्र ___ इन व्रतों को स्थिर रखने के लिये प्रत्येन चत की पांच २ भावनाएँ हैं सो अन सूत्रकार अहिंसावत की जो पाच भावनाएँ होती है उनमें सप से परिली ईर्या समितिरूप पहिली भावना को प्रकट करते है'तस्स इमा' इत्यादि। टीकार्थ-(तस्स ) उस प्रसिद्ध (पढमस्स वयस्स ) प्रधमत्रत की (इमा पच भावणाओ हति) ये ईर्यासमिति आदि पांच भावनाएँ होती है । क्यों कि इन भाननाओं से (पाणाहायवेरमणपरिरस्वणट्टाए) प्राणातिपातविरमण रूप जो अहिंसा व्रत है उसकी अच्छी तरह रक्षा होती है। तात्पर्य करने का यह है कि अत्यन्त सावधानी के साथ विशेप २ प्रकार की अनुक्रल मत्तियो का सेवन न किया जाय तो स्वीकार करने मात्र से ही प्रत आत्माको अपने रूप नहीं बना सकते है। अर्थात् वे आत्मा मे चिरस्थायी नही रह सकते हैं, निर्दोपरूप से सावधानी के साथ उनका पालन नहीं हो सकता है-वे यथार्थरूप मे आत्मा में नहीं उतर सकते । ग्रहण किये हुए व्रत जीवन को यथार्थरूप से अपने रूप में रग सके-अपनी अटल छाप आत्मा पर जमा सके इसलिये प्रत्येक व्रत के એ પાચ વાતોને સ્થિર રાખવા માટે પ્રત્યેક વ્રતની પાચ પાચ ભાવના છે હવે સૂત્રકાર અહિંસાવતની જે પાચ ભાવના છે તેમાની સૌથી પહેલી ध्ा समिति माह मा पाय लावना प्रगट हरे छे-“ तस्स इमा" त्या "तस्स" ते प्रसिद्ध "पढमस्स वयस्स" प्रथम प्रतनी "इमा पच भावणा हुति" ध्यासभिात माहिमा पाय लावनार डाय छ र उ त भावनासाथी "पाणाइवायवेरमणपरिरम्सणद्रोए" प्रातिपात विभा३५ અહિસાવત છે તેની સારી રીતે રક્ષા થાય છે કહેવાને ભાવ એ છે કે અત્યત સાવધાનીથી ખાસ ખાસ પ્રકારની અનુકુળ પ્રવૃત્તિોનુ સેવન ન કરાય તે સ્વીકાર કરવા માત્રથી જ વ્રત આત્મામાં ચિરસ્થાયી રહી શકતું નથી– નિદોષ રીતે સાવધાનીથી તેનું પાલન થઈ શકતુ નથી તે યથાર્થ રૂપે આત્મામાં ઉતરી શકતા નથી ગ્રહણ કરાયેલ તો જીવ નને યથાર્થ રીતે પિતાના રંગે રંગી શકી-પિતાની અટલ છાપ આમા પર જમાવી શકેઆત્મામાં ઉડાણથી પ્રવેશી શકે, તે માટે પ્રત્યેક મ
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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