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________________ सुदर्शिनी टोका भ० ४ ० १४ चतुर्थमन्तद्वारनिरूपणम् ४८७ शब्दादि freefayets प्रवर्तकैः 'सत्येहि ' शस्त्रः 'एवमेवक' एकैक = प्रत्येकं 'हणति' घ्नन्ति । 'अरे' अपरे= केचित 'परदारेहिं' परदारे' =परस्त्रीभिः 'हम्मति' हन्यन्ते=मार्यन्ते, 'परदारै' - रिश्यत्र कर्त्तरि तृतीया । यद्वा हेतौ तृतीया - परदारान्निमित्तीकृत्य अन्यैर्वलद्भि पारदारिकैर्हन्यन्ते । ' त्रिसुणिया ' विश्रुताः =पारदारिकत्वेन प्रमिद्धाः सन्तः केचित् ' धगणास ' धननाश = 'सपणनिष्पणास ' स्वजनपिमणाश= स्वजन नियोगं ' पाउणति ' प्राप्नुवन्ति, अय भाव - राजपुरुषा स्वनागत्य परदारिकाणां धन गृहन्ति, परदारिक वा दण्डनार्थ दण्डस्थान नयन्ति च । यद्वा-परदारप्रसादनार्थ स्वकीयं पिनाद्युपार्जित धन परदारेभ्य मय(मोहभरिया ) उस मैथुकरूप कर्म के मोरसे भरे हुए होने के कारण, अश्वा - विवेक से विफल बने रहने के कारण (निमयचिस उदीर एरिंसत्येहिं एकमेक हणति ) शब्दादि विषयरूप विषय के प्रवर्तक शस्त्रों से आपस में एक दूसरे को मार डालते है । ( अबरे ) किननेक प्राणी (परदारेहि हम्मति ) पर स्त्रियो द्वारा मार दिये जाते ह । अथवा परखी को निमित्त करके अन्य बलशाली पारदारिक पुरुषों द्वारा मथुनराज्ञा मे आसक्त मतिवाले व्यक्ति मार दिये जाते है । (विसुनिया ) पारदारिक परस्त्री - लम्पट रूप से प्रसिद्ध हुए कितनेक मनुष्य ( घणणास ) अपने धनके विनाश को और ( सयणविपणास ) आत्मीयजनो के विनाशको ( पाउणति ) प्राप्त करते हैं । तात्पर्य इसका यह है की परस्त्रीलपट व्यक्ति के पास राजपुरूष आकर उसके धन को छीन लेते है । और बाधकर उसे दड देने के निमित्त कारागार मे ले जाते है । अथवा परस्त्री को प्रसन्न करने के लिये पारदारिक मनुष्य अपने पिता आदि द्वारा उपार्जित 66 હાવાને કારણે અથવા વિવેક રહિત ખની જવાને કારણે विमयविसउदीरएहिं सत्येहिं एकमेक हणति " शब्दाहि विषयश्य विषना प्रभार शस्त्रो वडे अहरो शहर सीने भेड जीनने भारी नाथे के " अपरे ' डेटला सोने परदारेहिं हम्म ति " परस्त्रीओ द्वारा शाय छे બીજા બળવાન પરસ્ત્રીગમન કરનારા પુરૂષા દ્વારા પુરુષોને મારી નાખવામા આવે છે विसुणिया ’ પરસ્ત્રી લપટ ગણાતા કેટલાક પુરુષા 46 धणणा स " घोताना धननो नाश भने “ सयण विप्पणास " आत्मीय नोनो नाश " पाउणति " नोतरे तेने लावार्थ मे छे डे પરસ્ત્રીંગામી પુરુષની પાસેથી રાજપુરુષા તેમનુ ધન જપ્ત કરે છે, અને તેને ગાધીને શિક્ષા કરવાને માટે કેદખાનામા લઇ જાય છે અથવા પ્રાને રીઝ વવા માટે પરગામી પુરુષ પોતાના પિતા આદિ દ્વારા 66 ઉપાર્જિત ધન તે અથવા પરસ્ત્રીને કારણે મૈથુન સેવનમા આસક્ત
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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