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________________ Vas प्रभास - सीयाए दोबई एयकए, रूप्पिणीए पउमावईए ताराए कंचणाए रत्तसुभदाए अहिन्नियाए सुवगगुलियाए किन्नरीए य सुरूव विज्जुमईए रोहिणीए य, अण्णे य एवमाइया वहबो महिलाकए सुब्बति अइकंतासंगामा गाम धम्ममूला। अबंभसेविणो इहलोए तावनट्ठा परलोए य नहा महया मोहतिमिरधयारे घोरे तसथावरसुहुम वायरेसु पनत्तमपज्जत्तसाहारणसरीरपत्तय सरीरेसु य अडय पोयय जराउय रसय ससेइम समुच्छिम उभिन उववाइएसु. य नरग तिरियदेवमाणुससु जरामरणरोगसोगवहुलेसु पलिओवमसागरोवमाइ अणादीय अणवदगंदीहमद चाउरंतससारकंतारं अणुपरियति जीवा महामोहवससनिविठ्ठा॥१४ टीका-' मेहुणसगासपगिद्वाय ' मैथुनसक्षासम्पदाथ मैथुनाऽऽसक्ताः 'मोहमरिया' मोहभृता. अज्ञानपूर्गा , 'सियरिसउदीरएहि वपयरिपोदीरकै % ___ इस तरह यहा तक सूत्रकार ने अब्रह्म नामके चतुर्थ द्वार का यह पाचवा अन्तरि कहा, अब वे पूर्व में अनुक्त" यथा कृतम् " इस तृतीय अन्तार को और " यत्फल ददाति" इस चतुर्थ अन्तार को प्ररूपित करते हैं-' मेहुणे सण्णा सपगिद्धाय ' इत्यादि। टीकार्थः--( मेहुणसण्णा सपगिद्धा य ) जो प्राणी मैथुन सज्ञा में आसक्ति से युक्त होते हैं अर्थात् मैथुन में अत्यत आसक्त रहते हैं वे - આ રીતે અહી સુધી સૂત્રકારે બ્રહ્મ નામના ચોથા અધર્મકારનું પાચમુ અન્તર્ધાર વર્ણવ્યું હવે જેનું વર્ણન કરવાનું બાકી રાખ્યુ હતુ તે " यथा कृतम् " नाभना त्रीan मन्तरिनु तथा “ यत्फल ददाति " ते यात्रा मन्तरिनु प्र३५ अरे छ--" मेहुणसन्ना सपगिद्धा य " या य!" मेहुणसण्णा सपगिद्धाय" wal भैथुनमा मत्यत HEAST २७ छ तम्या "मोहमरिया " ते भैथुन३५ मना माथी सरपुर
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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