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________________ ४३७ सुदशिनी टीका २० ४ सू० ८ बलदेवासुदेवस्वरूपनिरूपणम् पातोत्पात चपल जमित शीघ्रनेगाभिः अवपात:-उ भूयारःपतनम्, उत्पात:= अधोभूलार्वगमन, तयो. चपल चञ्चल: जविता-गयुक्त अतएव शीघ्र वेगोगतिर्यासां तास्तथा ताभिः ' इसमयाहिं चेर' हमवभिरिवहसीभिरिवहसीनत्मतीयमानाभिरित्यर्थः । पुनः कथम्भूताभिचामराभिः ? इत्याह-'णाणामणिरणगमहरिहतरणिजुजरिचित्तदडाहि' नानामणि क्नक महाईतपनीयोज्ज्वलविचित्रदण्डाभिः-तत्र नानाविधामणय = चन्द्रकान्तादयः कनक-पीतवर्ण मुपण तथा महाह-बहुमूल्य यत् तपनीय च-रक्तवर्ण सुवर्ण तैरेतैरुजवला.भास्वराः विचित्रा = मणिमुवर्णादीना सम्मिश्रितकान्तिभिश्चिनः विचित्रा दण्डा यासा तास्तथा ताभि. विविधमणिखचितरक्तपीतसुवर्णदण्डयुक्ताभिः, यथा सुवर्णगिरिशिखरे स्थिता इस्यः शोभमाना समुल्लसति तथा मुवर्गगिरिस्थानीय सुवर्ण दण्डोपरिस्थिवामि. धालत्वात् हसीभिरितिभावः । तथा ' सललियाहि ' सललि अवपात-ऊँचे जाने में जिन की गति बहुत अधिक वेग को लिये हो रही है ऐसी (हसवधूचाहिं चेव) इस वधूओ के समान जो चामर अपनी शुभ्रता के कारण ज्ञात हो रहे है । तया (नाणामणिकणगमहरिह तवणिज्जुज्जलविचित्तदडाहिं) जिन चामरों के दड चंद्रकान्त आदि नाना प्रकार की मणियो की काति से, पीतसुवर्ण की प्रभा से, एव बहुमूल्य तपे हुए रक्तवर्ण वाले सुवर्णकी आभासे-इन सबकी परस्पर मिश्रित कान्ति च्छटा से-अधिक उज्जल और रंग विरंगे मालूम दे रहें है, अर्थात् जिस प्रकार सुमेरुपर्वत के तट पर स्थित इस कामनियाँ सुहावनी लगती है उसी प्रकार ये चामर भी सुवर्णगिरि के शिखर-तट जैसे दडों पर स्थित होने के कारण अपनी धवलता के कारण इसनियों के समान प्रतीत होते हैं (सललियाहिं ) ये चामर वेगाहि" यथा नाच गावामा भने नीन्यथा ये सवामारनी गति अभी डाय छे को हसवधूयाहिं चे" सवधूसा (उमदीया) रेवारे याभरे। पातानी ततान डारणे दागे तथा “नाणामणिकणगमहरिहतवणिज्जुनलविचित्तदडाहिरे याभरीना 31 यान्त ALE विविध પ્રકારના મણુંઓના કાતિથી, પીતસુવર્ણની પ્રભાથી, અને તપાવેલા બહુમૂલ્ય વાન રનવર્ણના અવની આભાથીએ બધાની પરસ્પર મિશ્રિત કાન્તિથી-અધિક ઉજજવળ અને રગ બે રંગી લાગે છે, એટલે કે જેમ સુમેરુ પર્વતના શિખર પર રહેલી હસલીએ સુદર લાગે છે એ જ પ્રમાણે તે ચામરે પણ સુવર્ણ ગિનિ શિખર જેવા દડે ઉપર આવેલ હોવાથી પોતાની તતાને કારણે सलीमा वा दागे छे “सललियाहिं " ते याम। सालित्य पाणा ता.
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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