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________________ सुदशिंनी टीका १०३ सू० ५५ कोशाधोरा कीदृश फलं लभन्ते १ ३३३ ग्राहकाणांनानाविधलञ्चग्राहकाणा ' स्थित खोर' इति भोपा प्रसिद्धाना तथा ' कृडस्पडमायाणियहि-पायरगपणिहिवचणपिसाग्याण ' कूटकपटमायानिकत्याचरणप्रणिधिनञ्चनपिगारदाना-तत्र कृट-भ्रमोत्पादन, कपट-वेगमापानानारूपधारण मायापारादीन् निग्रहीतु भिक्षाटत्यादिभिश्लपरण, गोजनादिभिरादरसत्कारकरणपश्चन निकृतिः तथा प्रणिरिपचन प्रणिधिना-उलेन एकाग्रचित्तेन वा वचन, यद्वा-मगिपीनाराजगुप्तपुरपाणा यद्वश्चन तत्र विशारदा मागल्भा ये ते तथा तेपा 'बहुविहअरियसयजपगाण' पहुविधालीशतनल्पकाना चौरादीनां आदि की शिक्षा से ये राजपुरुप शिक्षित होते है ( दिल उलीकारगाणं) दीन-हीन आटि वचनों को गोल कर चोर आदिको का निर्णय कराने वाले होते हैं, अर्थात्-ये राजपुरुप ऐसे निपुण होते हैं कि वोरों का पता यहु जल्दी लगा लेते है, इस प्रकार की उनकी बात चीत का ढग होता है कि जिससे " यही चोर है" इस बात का उन्हें ज्ञान हो जाता है। (लचसयगेण्याण) ये रिश्वतखोर-घूस खाने वाले होते हैं । तथा (कूडकपडमायाणियडि आयरणपणिहि-चचणविमारयाण )( कृड ) कूट मेंभ्रमोत्पादन में, ( कवड) कपट में-वेश भापा के नानारूप धारण करने में, (माया) माया में चोरोको पकडने के लिये भिक्षावृत्ति आदिसे छल करने में, (नियडि आयरण ) निकृत्याचरण में-भोजनादि द्वारा आदर सत्कार से प्रतारणा करने में, तया (पणिरिबचणा) प्रणिधि-वचनमें कोई बहाने से ठगो में, अथवा राजा के गुप्तचर पुरुषो का ठगने में, (विसारयाण ) बडे विशारद-चतुर होते है । (बहुविहअलियसयजपa dyst२ य छ “ विलउलीकारगाण " दीन-हीन माह क्या माली ચેર આદિને નિર્ણય કરનાર હોય છે, એટલે કે તે રાજપુરુષે ચરોને જલ્દી શોધી કાઢવામાં નિપુણ હોય છે તેમની વાતચીતની ઢબ એવી હોય છે કે था “म! माणुस र यार ," से वात भने समय " लच सयगेण्याणं " तो दायाया डाय छ, तथा “ कूडकवडमायाणियडिआयरणपणिहिवचणविसारयाण " "कूड" ७ उपामा भ्रमात्मानमा, " कवड" ४५८मा-विविध वेश सेवामा, “ माया" माया याराने ५४वाने भाट लिक्षावृत्ति माहि छ सवाभा, " नियडिआयरण" नित्यायरमा खान द्वारा मा४२१७२थी प्रतार! ७२बामा तथा “ पणिहिव चणा " પ્રણિધિ વચનમાં, કોઈ પણ બહાને ઠગવામાં અથવા રાજાના ગુપ્તચરને आवामा, “ विसारयाण " सारे निधुरा साय छ “बहुविहअलियसयजपगाण " '
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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