SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 751
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०४ भावनास्वरूपनिरूपणम् टीका- ' तय च ' इत्यादि । ' तइय च ' तृतीया च भावना वचनसमितिरूपामाह--' वईए पावियाए ' वाचा पापिया=पाद्यभाणरूपयेत्यर्थः पापकमाघार्मिक दारुण दशस वध ६२७ अब सूत्रकार इस अहिंसाप्रत की तीसरी वचन समितिरूप भावना का प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कहते हैं-' तइयच' इत्यादि० | टीकार्य - (नइय) वचनसमिति रूप तृतीय भावना इस प्रकार से हैं( पाविया वईए) सावयभाषणरूप वाणी से (पावग) जीव पाप का बध करता है । यह पाप (अहम्मिय दारुण निससवह यधपरिकिलेसबहुल जरामरणपरिकिलेस सकिलिह भइ) अपरूप है क्योंकि इससे जीवों को दुर्गति की प्राप्ति रोती है तथा इससे तीव्र दुखो को जीव भोगते है इसलिये यह दारुण-विषम है । आत्माके हितका इससे घात होता है इसलिये यह नृशंस है । वन, वचन और इनसे जन्य परिक्लेश- परिताप से यह पाप सदा भरा रहता है । जरा और मरण के भय से जनित सताप से यह सदा व्याप्त रहता है। ऐसा विचार कर जो मुनि ( न कयावि वई पाविया किंचिवि पावगभामियन्त्र) इस पाप वाणी को सावद्यभाषणरूप वचन को किसी भी समय थोडा सा भी नही बोलते है वे इस वचन समिति के योग से भावितात्मा वन जाते हैं । ( एव वय હવે સૂત્રના આ અહિંસાવ્રતની વચન સમિતિ નામની ત્રીજી ભાવનાનુ प्रतिपादन ज्याने भाटे सूत्र हे घे -" तइय च " त्याहि टीडार्थ - " तइय " वयनसमितिउप श्री ભાવના આ પ્રમાણે છે— " पावियार वईए " भाव लापश्य वाशीयी " " पावग જીવ પાપના ખધ આવે છે તે પાપ " अहम्मिय दारुण निसस वहन परिक्लेिस नहुल जरामरण परिकिलेससकिलिट्ठ भनइ અધમ રૂપ છે તેનાથી જીવાને દૃતિની પ્રાપ્તિ થાય છે તથા તેનાથી જીવ તીવ્ર દુખા ભાગવે છે તેથી તે દારુણુ-વિષમ છે તેનાથી આત્માના હિતના ઘાત થાય છે તેથી તે નૂરા સ જે વધ, ખ ધન અને તેના વડે ઉત્પન્ન થયેલ પરિકલેશ-પશ્તિાપથી તે પાપ સદા ભરેલ રહે છે જરા અને મરણના ભયથી જનિત મતાપ વડે તે સદા વ્યાપ્ત રહે છે. એવા विचार जीने ने भुनि " न क्यानि वई पवियाए किंचिवि पावग भासियन्न " આ પાપવાણીને સાવદ્ય ભાષણુરૂપ વચનને-કેાઇ પણ કાળે થાડુ પણ ખેલતા નથી, તે આ વચનસમિતિના ચેાગથી ભાવિતાત્મા બની જાય છે, ર एव "
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy