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________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू ५ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् " " ' " " 'अमराठी विमोय ' अष्टकर्मग्रन्थिविमोचक =अष्टौ = अप्टसख्यका ये कर्मग्रन्ययस्तेषा विमोचकः, तथा - ' अहमयमहणे ' अष्टमदमयनः=अष्टमदस्थाननाशकः ' ससमयकुसलेय' समय कुशलथ = स्वसिद्धान्त निपुणश्च चकारात् परसमयकुशल ' भवइ ' भवति । तथा-' सुहृदुक्खनिविसे से' सुखदुःख निर्विशेषः सुदुःखयोशोकादिरहित इत्यर्थः, 'अभितरसाहिरस्मि तवोरहाणम्मि' आभ्यन्तरवा तप उपधाने, तत्र - चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतुत्वात्मायश्चित्तादिषट्कम् - आ भ्यन्तरम् । नाद्यशरीरस्य परिशोपणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादनशनादिपट्क बाह्यम्, अन योर्द्वन्द्रः, तस्मिन्, तप उपधाने= तपएव मोक्षमार्गस्योपष्टम्भकत्वादुपधान तस्मिन्, सया सदा सुट् हुज्जए सुष्ठुद्यत = सम्यक्तया तदाराधने तत्पर हो जाता है । तथा (पावयणमायाहि अट्टहिं ) पाचसमिति, तीन गुप्ति रूप अष्ट प्रवचन माताओ के नल पर वह (अट्टकम्मगठीविमोयणे ) आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थियो को छोड़नेवाला वन जाता है। (अट्टमयमरणे) शुद्ध सम्यग्दर्शन का पालनकर्ता होनेके कारण वह आठ मदो का विनाशक होता है । (ससमयकुसले य ) स्वसमय में पूर्ण निष्णात वन जाता है तथा चकारसे परसमयका ज्ञाता भी वन जाता है । (सुहदुक्ख निव्विसेसे) सुख और दुःख उसे एकसे प्रतीत होने लगजाते है। वह उनमें हर्ष और विषाद नहीं करता है । (अभितरवाहिरम्मि तवोवहाणम्मि) चित्तनिरोधकी प्रधानता से कर्मक्षपण के हेतुभूत होने के कारण प्राय चित्त आदि छह प्रकार के आभ्यन्तर तप रूप उपधान में तथा बाह्य में शरीर के परिशोषण से कर्मक्षपण के हेतु होने से अनशन आदि वारह प्रकार के बाह्य तपरूप उपधान मे सदा ( सुटुज्जए ) अच्छी तरह 66 पवयणमायाहिं अहिं " पाय समिति श्रणुगुसिथी भाः प्रवथन भातासोना गजधी ते " अटुकम्मगठीविमोयणे " आठ अजरना भनी गाठीने छोडावनार मनी लय " अट्टमयमहणे " शुद्ध सभ्यग्रहर्शनना पासनज्र्ता होवाने भर તે આઠ મદને વિનાક હોય છે " ससमयकुसले य" स्वसमयमा पू નિષ્ણાત બની જાય છે તથા પારથી પર સમયના જાણુકાર ખની જાય છે सुहदुक्खनिव्विसेसे ” સુખ અને દુખ તેને સરખા લાગવા માટે છે તે તેમા હર્ષ કે વિશાદ કરતા નથી अभितर बाहिरम्भि तोवहाणम्मि ” वित्तनिश ધની પ્રધાનતાથી કર્મક્ષયના હેતુભૂત હોવાને કારણે પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ છ પ્રકા રના આભ્યન્તર તપરૂપ દેવાને ઉપધાનમા તથા બાહ્યમા શરીરના રિશેષણથી કમ ક્ષયના હેતુભૂત હોવાને કારણે અનશન આદિ ખાર પ્રકારના ખાા તપ રૂપ ઉપધાનમા સદા सुदुज्जए" भारी रीते ते तत्पर था लय छे, भेटते "L " "( قى 66
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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