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________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ४२ तिन्द्रियदीन्द्रियदु सनिरूपणम् * का दिकेषु = कुन्युः सुमन्तुविशेषः, पिपीलिका=प्रसिद्धा, 'उद्देहिया' उपदेहिफा = ' उदेही' इति भाषा प्रसिद्धा, इत्यादिकेषु ' तेहदियाण' त्रीन्द्रियाणा, ' अणूणगेहिं ' अन्यूनकेपु = पूर्गेषु 'अहहिं ' अष्टम्भु 'जाइकुल कोडिस यसहस्से हिं' जातिकुल कोटिशतसहस्रेषु - जातो त्रीन्द्रियजातो यानि कुलानि = कुन्थुपिपीलि कायाकाराणि, तेपा कोटयः = विभागाः = अन्तर्भेदाः, तेपा शतसहस्रेषु लक्षेषु परिपूर्णाष्टलक्षनीन्द्रियजातिकुल कोटिपु - इत्यर्थः, ' तर्हि तहिं चेव' तत्र तत्रैन त्रीन्द्रियेषु ' जम्मणमरणाणि ' जन्ममरणानि 'अणुहवता' अनुभवन्तः, ' नेरइयसमा गतिव्यदुक्खा' नैरयिकममानती नदुःखा= नररुमदृदा दुःखयुक्ताः 'फरिस - रसणघाण - सपउत्ता' स्पर्श रसनघ्राणसम्प्रयुक्ता = स्पर्शादिभिस्त्रिभिरिन्द्रियैर्युक्ताः ‘सखेज्जग ' सख्यातक=मख्यातवर्षसहस्र काल यानत् 'भमति ' भ्रमन्ति ॥ ०४२॥ करते हैं - ' तहेच ' इत्यादि । टीकार्थ - (तहेब) जिस तरह पापी जीव चतुरिन्द्रिय जीवों में जन्म मरण करके दुःखों को भोगते है उसी तरह वे (कुयु पिवीलिया उद्देतियाइएस) कुथु, पिपीलिका, उदेही आदिक प्रीन्द्रिय जीवों मे कि जिन ( तेइदियाण ) तेन्द्रिय जीवों की (अणूणगेहि अद्वहिं जाइकुलकोटिसयसह स्सेहि ) उन पूर्ण आठ लाख जातिकुल कोटियों में ( तहिं तहि चेव जम्ममरणाणि अणुवता) बार घार वही पर जन्म मरणों को करते हुए (नेरइयसमागतिब्बा) नरकगति जैसे असत्य दुःखों को भोगते हुए इनके (फरिस - रसण - घाण सपत्ता ) स्पर्शन, रसना और घ्राण इन तीन इन्द्रिय युक्त हुए ये तेन्द्रिय जीव ( सखेज्ज काल ) सख्यात हजार वर्षो तक (भमति ) उसी पर्याय में परिभ्रमण करते हैं || सू०४२॥ छे -- " तद्देन" त्याहि टीअर्थ - ' तद्देव” प्रेम पायी लव अतुरिन्द्रि वाभान्भ भर पाभीने हु भो लोगवे छे तेम तेम "कुथुपिवीलिया उद्देहियाइएसु" कुथु, डीडी, धर्म माहिङ त्रिन्द्रिय लवेोभा ४न्भ से छे भने 'तेइदियाण " तेन्द्रिय वोनी “अणूणगेहिं अट्ठहिं जाइकुलको टिसयसहस्से हिं" साहसाथ प्रारनी भतियोनिभा " तर्हि तहिं चैव जम्ममरणाणि अणुहवता" वारवार न्भ भर अनुलवता "नेरइयसमाणेतिव्वदुक्सा " નરક ગતિ જેવા અસહ્ય દુ ખો ભોગવે છે જેમને "फरिस - रसण - घाण सपउत्ता " स्पर्शन, रसना भने प्राणु मे त्रायुर्धन्द्रियान होय छे वा ते तेन्द्रिय लुवे "सखेज्जकाल " भय्यात हुन्नर वर्षो सुधी "भमति " ते " योनिमा परिभ्रम र्ध्या उरे छे॥ सू-४२ ॥
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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