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________________ स्ट प्रशयाकरणसूत्रे प्रादयः, उरगा: सर्पा, खचरा:-पक्षिणः श्येनादय , सदशनुण्डारादमिवतुण्डो येपा ते सदशतुण्डा नरकड़ादि पक्षिण , एपा द्वन्द्वस्वतः ते च ते 'जीवो पघातेन-जीवहिसया जीवन्ति - इति, जीवोपधातनीग्निश्चेति तयोक्ताः । 'सणीय ' सविनश्च 'असणिणो ' असशिन 'पज्जत अपज्जत्ते य' पर्याप्ता अपर्याप्ताथ-सर्ने जीवा-पर्याप्ता अपर्याप्नाथेति द्विविधा भान्ति तत्र पर्याप्तयो विधन्ते येपो ते पर्याप्ताः पर्याप्तनामकोदयाद पर्याप्तियुक्ता जीवाः, ते द्विविधा लब्धिपर्याप्ताः, करणपर्याप्ताश्च । ये सर्वा अपि पर्याप्तीः पूरयित्वा नियन्ते न तत. मात्र ते लब्धिपर्यासाः, ये पुन• शरीरेन्द्रियादोनि करणानि व्याघ्र आदि जीव (ओरग ) उरग-जाती के सहारे चलने वाले सांप, (खयर ) श्यन आदि पक्षी खेचर जीव (सदसतोंड) सदश-सडासी के जसे मुखाले ढक कक आदि पक्षी (जीयोवधायजीवी) ये सब जीवों की हिंसा करके अपना जीवन निर्वाह करने वाले हैं ! तथा (सण्णीय) जिनके मन है ऐसे सज्ञो पचेन्द्रिय जीव ओर (असणिणो) जिनके मन नहीं है ऐसे असज्ञी पचेन्द्रिय जीव, ये सब पाप करके प्रसन्न होते हैं । जलचर से लेकर असजी पर्यन्त के जिनने भी जीव है सर (पज्जत्ते अपज्जत्ते य) पर्याप्त और अपर्याप्त होते है । पर्याप्त नामकर्म के उदय से जिनकी अपनी योग्य पर्यासियां पूर्ण हो जाती हैं घे पर्याप्त जीव है, और जिनकी पर्याप्सिया पूर्ण नही होती हैं वे अपर्याप्त जीव है । ये पर्याप्त जीव लब्धिपर्याप्त और करणपर्याप्त के भेद से दो प्राकार के होते है । जो समस्त पर्याप्तियों को पूरण करके ही मरते हैं " ओरग" ७२-पटे यानास साप, "खहयर " मा मानिस २२ पक्षी, “ सदसतोंड" सश-सा सीना ! सुपारी 3, ४ on पक्षी "जीवोवधाय जीवी" से मधा वानी डिसा उशने पाताना वन Crals ४२नार ७ छ तथा “ सण्णीय" भने मन छ वा सज्ञी ५ न्द्रिय , अने " असणिण्णो " भने भन नथी ११ असशी ५न्द्रिय જીવ, એ બધા પાપ કરીને પ્રસન્ન થાય છે જળચરથી લઈને અસ ગ્રી સુધીના 021 4 छे ते या " पञ्जते अपजत्ते य" यति भने पति કાય છે પર્યાપ્ત નામકર્મને ઉદયથી જેમની પોત પોતાની પેગ્ય પર્યાસિયા પૂર્ણ થઈ જાય છે તેમને પર્યાપ્ત જીવો કહે છે અને જેમની પર્યામિ પૂર્ણ થતી નથી તે જીપને અપર્યાપ્ત જી કહે છે પર્યાપ્ત જીવોના બે ભેદ છે (૧) લબ્ધિ પર્યાપ્ત (૨) કરણપર્યાપ્ત જે જે સમસ્ત પતિ પૂરી કરીને
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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