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________________ - - सुदर्शिनी टीफा अ० १ २० २३ के के जीया पाप पुर्षन्ति ? नितितान्तस्ते करणपर्याप्ताः । तदितरे-अपर्याप्ताः । ' अमुभलेस्सपरिणामे' अशुमलेश्य परिणामा: अशुभलेश्या: सक्लिष्टलेश्यायुक्ताः परिणामा: अध्यवसाया चेपां ते, एते पूर्वोक्ताः । अण्णे य ' अन्ये च अन्येऽपि 'एबमाई । एवमादयः पताशा माणिनः, 'पाणा पायरण' माणातिपातरण-माणातिपातानुष्ठान 'फरेंति 'कन्ति, पुनरपि तदेवाह-'पापा' इत्यादि-'पात्रा' पापा:=पापकर्मतत्पराः, 'पाराभिगमा' पापाभिगमा: पापमेअभिगमः स्वीगरो येपा ते तथा 'पापमई 'पापमतया पापबुद्धयः, 'पावई' पापरुचया पापे एव रुचि-नुरागो येपाते तथा, 'पाणवहायरई' प्राणवपकतरतया माणवघे कृता-रतिः मोतियस्ते तथा, 'पाणबदस्याण्डागा' माणवधस्पानुष्ठाना-माणवधरूपमनुष्ठान इसके परिले नरीवे लब्धिपर्याप्त जीव है ! तथा जो जीव शरीर इन्द्रिय आदि करणों की रचना को पूर्ण कर चुकते हैं ये करणपर्याप्त है। इनसे भिन्न जो जीव है वे अपर्याप्त हैं तथा (असुभलेस्सपरिणामे) जिन जीवों के अध्यवसाय-परिणाम-सक्लिष्ट लेश्यायुक्त हैं (एए' ये तथा ( अण्णे य एवमाई ) इनसे भिन्न और भी ऐसे ही प्राणी (करेंतिपाणाइवाय करण) प्राणातिपातरूप पाप के करने वाले होते हैं। इसी बात को सत्रकार "पाया" इत्यादि पदों द्वारा प्रकट करते है (पावा) जो पापकर्म करने में तत्पर है, (पावाभिगमा) पाप प्रवृत्ति ही जिन्हें स्वीकृत है, ( पावमई) जिनकी बुद्धि पापमय हो रही है, (पावरुई) पापकर्म में जिनकी रुचि अधिक से अधिक रूप में सजग रहती है, (पाणावह कयई) प्राणवध में जिन्हें आनद आता है (पाणावहरूवाणुમરે છે–તે પહેલા મરતા નથી, તેમને લબ્ધિ પર્યાપ્ત જી કહે છે તથા જે જીર શરીર ઈન્દ્રિય આદિ કરની રચના પૂર્ણ કરી નાખે છે, તે જેને કરણ પર્યાપ્ત કહે છે તેમનાથી જે ભિન્ન પ્રકારના જીપ છે તેઓ અપર્યાપ્ત છે, तथा “ असुभलेस्सपरिणामे" रे वाना मध्यवसाय-परिणाम-ससिट अश्या युध्त डाय छ " ए ए" तमो तथा “ अण्णेय एवमाई" ते सिवायन। भी ५ वा भो “फरे ति पाणाइ वायकरण " प्रायतिपात ३५ पा५ ४२ना२। य छ मेरी वातन सूत्रा२ " पाया " त्याहि पह! द्वारा प्रगट ४२ छ “पावा" २ पा५४ ४२वान तत्५२ डाय छ, “पावाभिगमा " पा५ प्रवृत्ति भो स्वीजरेसी छ" पावमई " भनी मुद्धि पापमय थई छे, " पावरई " पापभमा भनी वृत्ति पधारेभा पधारे लगृत २ छ, " पाणवह कयरुई" प्राधमा भने मत मावे छ, “पाणवहरूवाणु
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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