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________________ सुशिनी टीका अ०५ सू०३ यथा ये परिग्रह युनि तन्निरूपणम् ५२१ थेति 'दुविहा' हिरियाः कपातीया' कलातीता. 'विमाणपासी' विमानसीन:-अनुत्तरिमानमासिन 'महडिया' महर्दिका 'उत्तमा' उत्तमाः श्रेष्ठाः मुखराः सर्वोपु प्रधाना, 'एव चं' इत्युक्तनकारेण 'चउब्धिहा' चतुर्विधाः-भवनातिमानव्यन्तरज्योतिप्कामानिररूपा, सररिसावि' सपरि पदोऽपि न केवल मेते रिन्तु पपा परिरदोऽपीत्य , देवाः 'ममायति' ममा. यन्ते ममत्त कुर्वन्ति । कस्मिन् विपये ममत्व कुर्वन्तीति तान्याह-'भवणवाहणनागरिमाणमय गारगागि य ' भानरानयाननिमानशयनासनानि च, तथा 'नागारिह प्रत्यभूमगागि य ' नानाविवभूपगानि च 'पपरपहरणाणि य' वासीमडिया उत्तमा सुरवरा एच चैते चन्धिहा मपरिसा वि देवा ममायति ) कम्पातीत के दो भेद है (२) ग्रेवेधक विमानवासी और (२) अनुत्तर विमानवाली इनमें जो पाच अनुत्तर विमानां में-विजय, वैजयन्त, अपराजित और सर्वार्थ मिद्ध इनमें रहनेवाले देव है वे मद्धिक कहलाते हैं और सर देवों में उत्तम-श्रेष्ठ एव प्रधान माने जाते है। कल्पोपपन्न देवों मे स्वामिसेवक भाव होता है। करपातीत में नहीं। ये तो सभी इन्द्रवत् होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं। मनुष्यलोक में किसी निमित्त पर कल्पोपपन्न देव ही आते है-कल्पातीत नही । इस प्रकार भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकरूप चारों प्रकार के देव अपनी २ परिपदासरित इन भवन आदि पदार्थों में ममत्व करते हैं। सूत्रकार अब इन्ही ममत्व के विपयभूत पदार्थो को करते हैं-(भवण-वारण-जाणविमाण-सयणासणाणि ) भवन, वाहन, यान, विमान, शयन, आसन तया- (नागाविस्वत्थभृसणणि य) सुरवरा एव चउचिहा सपरिसा वि देवा ममयति" ४६पातीतना मे छ (१) अवय विमानवामी गने (२) अनुत्त विमानवासी तमाना विय, વૈજ્યન્ત જ્યન્ત અપરાજિત અને સવાર્થ સિદ્ધ એ પાચ અનુત્તર વિમાનમાં રહેનાર જે દેવે છે તેમને મહદ્ધિક કહે છે, તે દેવે બધા દેમા શ્રેષ્ઠ ગણાય છે મનુષ્યલકમાં કઈ પણ નિમિત્તે પપા દેવો જ આવે છે, કપાતીત આવતા નથીઆ રીતે ભવનપતિ, વાનવ્યન્તર, જ્યોતિષ્ક અને વૈમાનિક, એ ચાર પ્રકારના દેવ પિત પિતાની પરિષદ સાથે તે ભવન આદિ પદાર્થોમાં મમત્વ રાખે છેસૂત્રકાર હવે તે મમત્વના વિષય રૂપ પદાર્થો દર્શાવે છે' भवण-याइण-जाण-विमाण-सयणा-सणाणि " अपन पाउन, यान, विमान, शयन, सामन, तथा “ नाणाबिहानभूसणाणि य" विविध वस्त्रो, माभूष! - -
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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