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________________ सुर्शिनी का अ०५ सू०१ परिमहस्वरूपनिरूपणम् ५०३ द्रोणमुखानि जलपथ स्थल्पथगम्याः पुरविशेपाः, 'सेड' खेडानि-धूलीप्राकार युक्तानि, 'घड' कटानि-कुत्सितनगराणि 'मडन' मडम्बानि-दूर दूर वसति युक्ता प्रदेशाः, 'सपाह' साहा-पत्र कपका धान्यादिकमानीय स्था. पयन्ति ते 'पट्टण' पत्तनानि-जलस्थल पथान्यतरपययुक्तानि निवासस्थलानि, एतेपा इन्दः, एपा यत्सहस्र तेन मण्डित-शोभित यत्तत्तादृश, तथा ' थिमियमेयणीय' स्तिमितमेदिनीक-स्तिमिता = स्वचक्रपरचक्रमयवर्जिता, मेदिनी-भूमि यस्मिन् तत्ताहगम् , तथा 'एगच्छत्त' एकच्छरम्-एकराजकमित्यर्थः, चक्रवर्तिपदप्राप्तेः पार माण्डलिकत्वे एतादृश भरतक्षेत्र परिभुज्यत्यया, तथा 'ससागर ' सागरसहिताम् ' बमुह यमुधां-समग्रा पृथ्वी च चक्रवर्तिपदप्राप्त्यनन्तर भुक्त्या, एतद्भोगेऽपीत्यर्थ., 'अपरिमियमणततण्डमणुगयमदिच्छसारनिश्रेष्ठनगर, जलपथ, स्थलपथ इन दोनो से गम्य स्थान रूप पुरविशेप धूली प्राकार से युक्त सेड, कुत्सितनगररूप कट, दूर दूर वसति से युक्त प्रदेशरूप मडर, सवाह-जहां पर कृपकजन धायादि लाकर रखते हैं ऐसे प्रदेश, जल पथ तथा स्थलपथ इन दोनों मे किसी एक पथ से युक्त पत्तन, इन सर की रजारों की संख्या से मडित, तथा ( घिमियमेयणीय ) स्वचक्र और परचक्र के भय से वर्जित भूमि से युक्त तथा (गच्छत्त) एक राजा वाले, चक्रपति पद की प्राप्ति के पहिले माण्डलिकपनेमें नगनगरादि सहित (भरह) भरतक्षेत्र को भोग करके, तथा (ससागर वमुह भुजि ऊण) चक्रवति पद की प्राप्ति के अनन्तर समुद्रसहित ममस्त पृथ्वीनो पटखड मडित भरतक्षेत्र को भी भोग करके (अपरिमियमणततण्मणुगयमहिसारनिरयमूलो) अपरिमित-प्रमाण આદિ નગર, જળમાર્ગ તથા જમીનમાર્ગે પ્રવેરા કરી રાડાય એવુ નહેર ધૂળના દિલા વાળુ ખેડ, કુત્સિત નગર રૂપ કર્બટ જેની આસપાસ ઘણે દૂર સુધી ગામે ન હોય એવું મડબ, આ બાહ-જ્યા ખેડૂતે ધાન્યાદિ લાવીને રાખે એવા પ્રદેશે, જળમાર્ગ તથા સ્થળમાર્ગ એ બન્નેમાંથી એક માર્ગ વાળુ પતન, से पधानी बनी भ्याथी युस्त, तथा “ थिमिय मे यणीय" 24 मने. ५२स्या यथा २डित भूभिवाया तथा " एगच्छत्त" मे, २० , यजपति ५६ पास र्या पडदा भारति 1 तरी पर्वत तथा ना माहित “ भरह" सरतक्षेत्र ५२ सत्ता सोपान, तथा “ मसागर वसुह भुजिऊण" यति ५४ પ્રાપ્ત કર્યા પછી સમુદ્ર સહિત આખી પૃથ્વીને-છ ખડ વાળા ભરત ક્ષેત્રને 4 नागपान “अपरि-मियमणत-तण्ह-मणुगय-महिसार-निरयमूलो' अ५--
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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