SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुदशिनी टीका २०३ सू०२० अदत्तादायिन कीदृश फल लभन्ते' _____३७२ टका-पावकम्मकारी' पापकर्मकारिगस्तेऽदत्तादायिन 'जहि-जहि आउय निवधति' यत्र यत्र आयुर्निबध्नन्ति यत्र यत्र ग्रामकुगदौ आयुर्निबध्नन्ति तत्र तत्र समुत्पद्यन्ते इत्यर्थः । तत्र कीदृशा भवन्ती ? त्याह-वधवजणसयणमित्तपरिसज्जिया' वान्यास्वजनमित्रपरिवनिता = तत्र वान्धवजनः भ्रातादिभिः, स्वजन =पुत्रादिमिः, स्नेहिजनरूपमित्रैश्च परिवर्जिताः-रहितास्त्यक्ता वा भवन्ति पुनः 'अणिहा' अनिष्टाः सरललोकस्याऽपियाः, तथा 'अणादेज्जा ' अनादेयाः =अनादेयपचननामगोत्रादिमन्त । तया 'दुपिणीया' दुविनीताः = उद्धताः 'कुहाणासणकुसेजा ' कुस्थानासनकुशग्याः कुत्सित स्थान-कुग्रामवासादिरूप ये अदत्तग्राही और भी क्या फल प्राप्त करते है ? इसी विषय को सूत्रकार पुनः स्पष्ट करते हैं-'जहिं जहिं ' इत्यादि। टीकार्य-(पावकम्मकारी) अदत्तादानरूप पाप कर्मकारीमनुष्य (जहिं२. आउय निति ) जिस२ पर्याय की आयु बाधते हैं वे उस२ पर्याय में उत्पन्न होते है वहा पर उनकी स्थिति कैसी होती है ? सूत्रकार इसी पातको आगे के पदों द्वारा प्रकट करते है, वे कहते हैं कि ( वववजणसयणमित्तपरिवज्जिया) वे वहा भ्रातृ आदी चाधरजनों से, पुत्र आदि रूप स्वजनों से एव स्नेहीजन रूप मित्रों से सदा परिवर्जित होते हैं। (अणिट्ठा ) कोइ भी लोग इनसे प्रीति नही करते हैं, तथा (अणादेज्जा) ये ऐसे गोत्रादि वाले होते हैं, की जिनका वचन कोइ नहीं मानते हैं यहा तक कि जिनका नाम लेना भी भले मनुष्य अच्छा नहीं समझते हैं। (दुन्विणीया ) दुर्विनीत-उद्धत होते है। (कुट्ठाणासणकुसेज्जा) તે અદત્તગ્રાહી બીજુ કયુ ફળ પ્રાપ્ત કરે છે, તે વિષયનું સૂત્રકાર હજી પણ थारे २५०टी४२५ ४२ छ-" जहिं जहिं " त्यादि ___ -"पावकम्मकारी" महत्ताहान३५ पा५४म ४२ना२ मनुष्य जहिर आउयनिय ध ति" २२ पर्यायनी मायु माघे छ तेते पर्यायमा उत्पन्न थाय छे त्या તેમની કેવી હાલત થાય છે? સૂત્રકાર એ જ વાતને હવેના પદો દ્વારા પ્રગટ ४२ छे तसा - "बधवजणसयणमित्तपरिवज्जिया" साडी ત્યા ભાઈ આદિ બધુજનથી, પુત્ર આદિ સ્વજનથી, અને સ્નેહીજનરૂપ મિત્રોથી सहा त्यतया २७ छ, “ अणिद्वा" आई ५ वी तेमना प्रत्ये प्रीति घरात नथी, तथा " अणादेज्जा" तेसा मेवा मात्रा वाया जाय छ । તેમની વાત કે માનતું નથી, એટલુ જ નહી પણ તેમનું નામ લેવું તે પણ सा। भासाने योग्य सागत नयी " दुविणीया" दुदिनीत-6वंत डाय छ, "कुट्ठाणासणउसेज्जा" आभामा तमन २९४ डाय , मनमती की
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy