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________________ कार्य येषा ते तथा, 'पाणनहकहासु , प्राणधया=माणिहिसावार्तासु अभिरमता । अभिरमतः प्रसीदन्त सन्तस्ते नहुष्पगार ' बहुमकार नानाविधं 'पाव' पाप' करेंतु ' कृत्या 'तुट्टा' तुष्टाः = प्रगन्ना 'हुति' मयन्ति ||० २३|| पूर्व ' जेविय करेंति पात्रापाणवह इति प्रतिज्ञात पञ्चम प्राणवधकर्तुद्वारं निरूपित, सम्मति ' जदयकओ जारिस- फल देह यथा च कृतः प्राणवधो यादृश फल ददाति इति चतुर्थ फलद्वार प्रतिपादयन्नाह - ' वस्से ' इत्यादि । " प्रश्नव्याकरणसूत्रे " मूलम् - तस्स य पावस्स फलविवाग अयाणमाणावति महम्भयं अविस्सामवेयण दीहकालबहुदुक्खसंकड नरयतिरिक्खजोणिं । इओ आउक्खए चुया असुभकम्मबहुला उववजंति नरपसु हुलिय महालएसु वयरामय कुड्ड - रुदनिस्सधि-दार विरहिय - निम्मद्दव भूमितल-खरामरिस-विसमणि रयघर चारएसुं हाणा ) प्राणवरूप कार्य करना ही जिनका एक अनुष्ठान है और ( पाणावह कहासु अभिरमता ) प्राणियों की हिंसात्मक वार्ताओं में जिन्हें रस मिलता है, ऐसे जीव (पगार) नानाविध (पाव करेनु ) पाप करके ( तुट्ठा) सतुष्ट (हुति ) होते हैं । भावार्थ - जलचर, थलचर आदि जितने भी तिर्यच हैं, एव पक्षी आदि जितने भी खेचर जीव है चाहे वे सज्ञी हो चाहे असजी हो पर्याप्त हो चाहे अपर्याप्त हो यदि ये जीव घात करके अपना निर्वाह करते हैं तो पापी है - पापकर्म मे रत है । जिन जीवो के परिणामों में अशुभलेश्या वर्तती रहती है, जो पापमय कृत्यों में आनन्द मानते हैं इत्यादि प्रकार के जीव भी पापी और पापकर्म रत है ॥ सु. २३ ॥ " ठाणा પ્રાણવધનુ કાર્ય જ જેમનુ એક અનુષ્ઠાન છે, અને “ पाणवहकहासु अभिरम ता " आलीयोनी डिसात्मक वार्तायोमा भने रम पडे छे, मेवा જીવા बहुप्पगार " विविध " पावकरेत्तु " पाये अने ፡ 62 'हुति " पामे छे "" तुट्ठा સતેષ ભાવા—જળચર, સ્થળચર આદિ જે જે તિ ચ છે, અને પક્ષી આદિ જેટલા ખેચર (નભચર) જીવે છે. તેઓ સજ્ઞી હાય કે અસન્ની હોય, પર્યાપ્ત હાય કે અપર્યાસ હાય પણ જો તેઓ જીવાની હત્યા કરીને પોતાના નિર્વાહ ચલાવતા હાય તેા તેઓ પાપી છે-પાપક્રમ મા રત છે જે જીવાના પરિણા— મામા અશુભલેસ્યા પ્રવતિ હેાય છે જેઓ પાપમય કૃત્યામા આનદ માનતા હાય તે, ઈત્યાદિ પ્રકારના જીવા પણ પાપી અને પાપકમ મા રત હોય છે।સૂ ૨૩
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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