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________________ सुदर्शिनी टोका म०३ सू.१० "विनय' नामकपञ्चमभावनास्वरूपनिरूपणम् ७६३ सण प्रयोक्तव्यः । तथा-'दागरगहणपुच्छगामु' दानग्रहणमच्छनासुन्दान-न्धस्थानादे ग्लानादिभ्यो पितरणत् , ग्रहणम्-परेण दीयमानस्यैवान्नादेग्रहणम् , मच्छना-विस्मृतमूत्रार्थविपये पन्नः, एतामु 'विणओ' पिनय =दान ग्रहणयोगुर्वा शालक्षण , मच्चनाया वन्दनादिरूप प्रयोक्तव्य । तया- निलमणपवेसणाम' निष्क्रमणमवेशनयोः = गमनागमनयोः पिनयः = गमने आनश्यिकीरूपः, नागमने नेपेधिकीरूपः प्रयोक्तव्यः, किं बहुना ' अण्णेसु य' अन्येषु च 'एवमाइएम' एवमादिकेपु-एवविधेषु बहुपु 'कारणसएम' कारणगतेषु पिनयः प्रयोत्तव्यः । कस्मात्कारणाद् विनय प्रयोक्तव्यः ? इत्याह-विणनोवि' पिनयोऽपि तपा-न केवलमनशनादिकमेव करने में साधु को (विणओ पाजियच्चो ) वन्दनादिरूप विनय करना चाहिये। तथा (दाणग्गरणपुच्छणास्तु विणओ पउनियव्यो) दान मेदाता द्वारा दिये हुए अन्नादि को का ग्लान आदि साधुओ के लिये वितरण करने में-दाता द्वारा दिये गये अन्नादिक के लेने में गुरु की आज्ञा प्राप्त करना स्प विनय, प्रच्छना मे-विस्मृत हुए स्त्रार्थ को गुर्यादिकों से पूछने मे-वदनादि रूप विनय भाव रखना चाहिये । तथा (निक्खमणपवेसणासु) निप्क्रमण और प्रवेशन में-गमन और आगमन में-(विणओ पउजियव्यो) आवरियकी रूप और नैपेधिकी रूप विनय करना चाहिये अर्थात्-गमन में आवश्यकिरूप और आगमन मे नैपेधिकीरूप विनय भाव साधु को रखना चाहिये। (अण्णेसु एवमाइएसु सुयहस्सु कारणेसु इसी तरह के और भी बहुत से सैकड़ों कारणो में (विणओ पउजियव्वो) विनय भाव का आचरण करते माहि शन विनय विवो नये तथा “ दाणग्रहणपुच्छणासु विणओ पर जियव्यो" हानभा-हता द्वारा मायेस अन्नानि सान मा साधुरामा વિતરણ કરવામાં વિનય રાખવું જોઈએ ગ્રહણ કરવામા-દાતા દ્વારા અપાયેલ અન્ન આદિ લેવા માટે ગુરુની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરવા રૂપ વિનય પાળવું જોઈએ પ્રચ્છનામા-ભૂલાઈ ગયેલ સૂત્રાર્થ ગુરુ આદિને પૂછતી વખતે વદ આદિ રૂપ विनय माप राम तथा “निक्समणपवेसणासु" निमा मने अवेशना-मन मने मागमनमा “विणओ पउ जियो" सापश्थिती ३५ નધિકી રૂપ વિનય ભાવ સાધુએ રાખવો જોઈએ, એટલે કે ગમનમાં આવસ્થિકી રૂપ અને આગમનમા નધિકી રૂપ વિનય ભાવ સાધુએ રાખવો જોઈએ " अण्णेसुएइमाइएसु बहुसु कारणेसु" ॥ प्रानी अन्य से 31 मतोमा ५५ " विणओ पउ जियञ्चो" विनय साप मायरन से विणओ
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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