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________________ सुर्दशनीटीका १० ३ सू० ४ कोमुनिरदत्तादानादिवतमाराधयति कर्मनिर्जराभिलापी, 'अणिस्सिय ' अनिश्रित-कीर्त्यादिनिरपेक्षम् इहलोकपरलोकाद्याशसारहितमित्यर्थः, 'बहुविह ' बहुविधम् = भक्तपानादिभिर्महुमकराक, 'दसविह' दशविध आचार्यादिदशविधस्थानक, 'वेयावच्च' वैयाकृत्य-भक्तपानादिभिः साहाय्य करेड' करोति । ननु अत्यन्तवालदुलादि सद्धान्ताना चतुर्दशाना वेयारत्यस्थानतया प्रथमचैत्य शब्द सिद्ध हो जाता है-तर चित् ही चैत्य है ऐसा अर्थयोध होता है । यर चैत्य-सम्यग्ज्ञान-ही जिमका प्रयोजन है वह चैत्यार्य है, इस प्रकार का अर्थ होने से इसका तात्पर्य यह रोता है कि जो साधु सम्यग्ज्ञान की अभिलापा वाला है। "अणि स्सिय" यह पद क्रियाविशेपण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जिसका साराश है कि वह साधु इन याल आदि मुनिजनो का वैयावृत्त करते समय यह भावना न रखे कि मुझे कीर्ति आदि की प्राप्ति अथवा इहलोक सयधी सुखों आदि की प्राप्ति इनकी सेवा करने से होगी। " यहुविध" यह चैयावृत्य का विशेपण है जो यह कहता है कि वैयावृत्य तप भक्तपान आदि से अनेक प्रकार का है। शास्त्रो मे चैयावृत्य के भेद दस कहे हैं । कारण आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, साधर्मिक, कुल,गण और सघ ये दस स्थान सेवाके हैं । इसलिये इनकी सेवा रूप यह वैया घृत्य भी दश प्रकार का कहा गया है। शका-इस "अच्चतथाल" आदि पद में तो अत्यतयाल से અર્થ થાય છે તે ચિત્ય-સમ્યગૂ જ્ઞાન જ જેનું પ્રયોજન છે તે ચૈત્યાર્થ છે, તે પ્રકારને અર્થ થવાથી તેનું તાત્પર્ય તે થાય છે કે જે સાધુ સમ્યગ शाननी मलिता! पाप छ “ अणिस्सिय " 0 ५६ डियाविशेषना ३५मा વપરાય છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે તે સાધુ તે બાલ આદિ મુનિઓનુ વૈયા વૃત્ય કરતી વખતે એવી ભાવના ન રાખે કે મને કીતિ આદિની પ્રાપ્તિ અથવા मास तथा ५२४ सपा सुभानी प्रालि भनी सेवाथी थशे "पहविध" તે વિયાવૃત્યનું વિશેષણ છે જે એ બતાવે છે કે વૈયાવૃત્ય તપ આહાર પાણી આદિ અનેક પ્રકારના છે રાસ્ત્રોમાં વૈયાવૃત્યના દસ ભેદ બતાવ્યા છે કારણ है माया, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, सक्ष, सान साभि, भुस, र અને સઘ એ દશ સેવાના સ્થાન છે તેથી તેમની સેવારૂપ આ વૈયાવૃત્ય પણ દશ પ્રકારનું કહેલ છે -4 “ अच्चतमाल " मा ५४मा सत्यत माथी सन स५
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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