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मुशिनी टीका १० । सू० ३० वेदनापीडितनारकामन्दनिरूपणम् १११ वचनानि 'जपमाणा' जल्पमानाप्रलपन्तः 'दिसोदिसिं 'दिशोदिश-एफस्या दिशोऽन्यां दिशमितस्तत इत्ययः 'विपेक्खत्ता' विप्रेक्षमाणाः समन्तात् पश्यन्तः 'अत्ताणा' अत्राणाः रक्षाहीना , अतएर 'असरणा' अशरणा-शरणरहिताः, अतएर ' अगाहा' अनाया दीनाः, ' अवधा' भान्धवा मान्धारहिताः, 'पधुविप्पहीणा' बन्धुविहीणा विद्यमानसम्बन्धिविपयुक्ताः, 'मियविव' मृगा इव 'भउन्विग्गा' भयोद्विग्नाः मयन्याकुलाः 'वेगेण' वेगेन 'विपलायति' विपलायन्ते प्रधावन्ति, ततः प्रधापमानान् तान् नारकान् ‘वला' चला 'घेत्तूण' गृहीला 'निरणुकपा' निरनुकम्पादयारहिताः 'केड' केऽपि 'जमझाइया' यमझायिकाः-परमाधार्मिकाः, हसता हसन्त 'पलायमाणाण' पलायमानाना च तेपा 'मुह 'मुस 'लोहदेण्डेहि ' लोहदण्डै', 'विहाडेउ' विघाटप उद्घाटय ' कलकल ' अतितप्तत्वात् कल-कल शब्दयुक्त पूर्वोक्त त्रपुक मकार कहकर वे (कलुणाणि जपमाणा) कम्णा वचनोंका उच्चारण करते हुए (दिसोदिसि विपेक्खता) वहा से दूसरी दिशा में इधर उधर देखते हुए (अत्ताणा) रक्षक रहित (असरणा) शरण रहित (अणाहा) विनानाथ के (अवधवा ) दीनदशा सपन्न (चधुविप्पहीणा) बांधवों से ररित-रक्षक जनों से रहित, अतः (भउन्विग्गा) भय से व्याकुल बन कर वे (मियविन) मृगों की तरह वहा से (वेगेण ) वेगपूर्वक (विप्पलायति) भागते हैं। इसके बाद भागते हुए उन नारकियों को (वलाघेत्तूण )जपर्दस्ती से पकड़कर (निरणुकपा) दयारहित बने हुए (केइ) कितनेक (जमकाइया) यमझायिक परमाधार्मिक देव (हसता ) हँस हँसकर (पलायमाणाण) पलायन करते हुए उनके (मुह ) मुख को (लोरदडेहिं) लोरदडों से (विताडेउ) फाडकर फिर उसमें (कलकप्रभारी डीन "कलुणाणि जपमाणा" ३१४ वयना मात, " दिसो दिसि विप्रेक्यता" त्याथी मी मा पाम तेभ नेता, "अत्ताणा" २२४ विमान "असरण', शरण विनाना, "अणाहा" मनाथ, "अयधवा" हीनभा भूयेसा, "बधुविप्पहीणा" माधो विनाना-२क्ष उ२॥२ विनाना, मेवात नारी पो "भउबिग्गा" अयथी व्याज मनीन "मियविव" भृगानी भ. त्याथी वेगेण"
थी 'विप्पलाय ति ' खाणे छ त्यारा माता सेवा ते नाही वाने "बलात्तूण"नर नुसमयी ५502 "निरणुकपा" या २डित मनेसा “केई" टा४ "जमकाइया" यमयि, ५२मायामि वो "हसता" सी उसीन "पलायमाणाण" नासता सेवा तमना "मुह" भुमने 'लोहडे हिं" सोढाना