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________________ सुदर्शिनी टीका अ०३ सू० १. अदत्तादायिन परलोकगतिनिरूपणम् ३५९ तणेममूले' नरकवर्तनी-नरकमार्गभूतानि भवप्रपञ्चकरणगणोदीनि भत्रमपञ्चस्य जन्मपरम्परापमाहस्य करण भवन तस्य प्रणोदीनि = प्रपतकानि नरकगमनकारगानीत्यर्थः, तथा पुनरपि-पुनश्च ससारापर्त नेमिमूलानि तर समारपर्ते=ससारभ्रमणे नेमिमूलानि रथचकपरिधिरूपाणि कर्माणीति गम्यते 'निवति' निवानन्ति चतुर्गतिससारपरिभ्रमणकारणानि महारम्भमहापरिग्रहरूपाणि कुन्तीत्यर्थः । तथा 'धम्ममुइयज्जिया ' धर्मश्रुतिवर्जिताः = धर्मः = श्रुतचारित्रलक्षणस्तस्य श्रुतिः अपण तद् पनिताः 'अणज्जा' अन्याग्याः न्यायपर्जिता 'रा' राजीवोपपातकाः "मिम्उत्त सुइपवण्णा य' मिथ्यास अति प्रपन्नाश्व-मिथ्या. त्वश्रुति-मिथ्यात्वमयाना "न माणिवधे दोपा नाप्यदत्तादाने दोपाः" इत्यादिरूप विपरीततत्त्वोपदेशिका या अतिः सिद्धान्तस्ता प्रपन्नाः तदगीकारकाः 'हुति' भान्ति । तथा एगतदडरुइणो' एकान्तदण्ड रुचयः = एकान्तम् अत्यन्त दण्डे हिंसादिके मचिः = श्रद्धा येपा ते तथा केवल परसन्तापोत्पादनपराप्रवर्तक, तथा (पुणोवि ससारावत्तणेममृले) यार वार चतुर्गतिरूप ससार में परिभ्रमण के नेमिभूत-रथचक्र के परिधिरूप ऐसे कर्मों का ही (निय धति ) यध करते रहते है। अर्थात्-नरक, तिर्यच, मनुष्य गतिरूप ससार में परिभ्रमण के कारणभृत ऐसे महारम्भ, महापरिग्रह रूप कर्मों को करते रहते है । तथा (धम्मसुइवज्जिया) धर्मश्रुति से युतचारित्ररूप धर्म के श्रवण से वर्जिन रहते हैं। (अणज्जा ) न्यायमार्ग से हीन होते हैं। (कूरा) कर-स्वभाव के जीवो का उपघात करने वाले होते है । (य) और (मिच्छत्त मुइपवण्ण) "न प्राणिवध मे दोप है और न अदता दान में दोप है " इत्यादि प्रकार से विपरीत तत्त्वोपदेशक मिथ्यात्वप्रधान श्रुति को-सिद्वातकों अगीकार करने वाले (हुति ) होते हैं। तथा (एगतदड-रुहगो ) इनकी श्रद्धा हिंसादिक पापकार्यो मे ही अत्यत रूपमें " पुणोवि ससारावत्तणेममूले" वारवार याति३५ ससारमा परिश्रमाना नभिभूत-२थयन परिधि३५ वा भनिन “निनधति" ५५ माता રહે છે, એટલે કે નરઠ, તિર્યંચ, મનુષ્યગતિરૂપ સંસારમાં પરિભ્રમણના કાર ५५३५ मेवा मडा२, महापरिय३५ ४ा ४२ तथा "धम्म सुइव ज्जिया" तयारित्र३५ घमना श्रवथा २डित २९ , ' अणज्जा" न्याय भाथी २डित डाय छ, “पूरा" २ स्वमापना-यानी (AI 'डाय छ “य" तथा " मित्त सुइपवण्ण " “प्राविषयमा होप नथी मने मह ત્તાદાનમા દેવ નથી ” ઈત્યાદિ પ્રકારના વિપરીત તોપદેશક મિથ્યાત્વ પ્રધાન सिद्धांताने वीरनार हुति" डाय छ, तथा " एगतदडरुइणो" सिEि
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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