SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 38 sererrarres " समाप्त तदपि स्वल्पमान कृत आहारो येतं तथा 'उब्बिग्गा 'उद्विग्नाः = उद्वेगयुक्ता अशान्तचित्ता इत्यर्थः, 'उप्पुया ' उत्प्लुताः चापन्नः असरणा अगरणा = प्राणरहिताः गृहरजिता 'अडीशस ' अटीपास=अरण्यवास 'वालसय सरुणीय ' व्यालशतशङ्कनीय = व्यालाना=मर्यादिदुष्टश्वापदाना शक्तिः शङ्कनीय भुजङ्गादिभिर्भयङ्करम् ' उयति उपयन्तिमाप्नुवन्ति ॥ सू० ११ ॥ ' पुनस्ते कीदृशा मनन्ति इत्याह-' अयसकरा ' इत्यादि मूलम् - अयसकरातक्करा भयकरा कस्महरामोत्ति अजदव इति समामंतणं करेंति गुज्झ, बहुयस्स जणस्स कज्जकरणेसु विग्घकरामत्तप्पमत्तपसुत्तवी सत्य छिद्दघाती वसणन्भुदयसु हरणबुद्धी विगव्वरुहिरमहिया परेति नरवईमज्जायमतिकंता सज्जणजणदुगछिया सकम्मेहि पावकम्मकारी असुभपरिणया य दुक्खभागी निच्चाउलदुहमनिव्वुझ्मणा इहलोगे चेव किलिस्संता परदव्वहरा नरा वसणसयमावण्णा ॥ सू० १२|| चाहे कंदमूल आदि हो सो भी वह भरपेट नही मिलता स्वल्पमात्रा में ही मिलता है, उसे ये खालिया करते हैं, ( उन्धिग्गा ) इनका चित सदा अशान्त रहता हे । ( उप्पुया ) ये बडे भारी चपल होते है । (अस रणा ) इनका एक जगह स्थिर वास नही होता इसलिये ये त्राण रहित होकर इधर से उधर भागते रहते हैं और (अडवीवास ) जगल मे ही वसेरा करते हैं । ( वालसयसकणीय) सर्पादि सैकडों दुष्ट जानवरों के भय से शका शील ऐसे स्थानों को ये ( उवैति ) प्राप्त करते हैं । ० ११ ॥ उविग्गा " પણ તેમણે ધરાઈ ને ખાવા મળતી નથી, ઘેાડા પ્રમાણમા જ મળે છે તેમનુ ચિત્ત સદા અશાન્ત રહે છે. “ उप्या ” તેએ ઘણા જ ચપળ હાય छे" असरणा " तेभनु रहेठाजु अयम थोड જગ્યાએ હાતુ નથી, તેથી તેઓ અશરણની જેમ આમતેમ ભસ્યા કરે છે ፡ अडवीवास "" જગલમા જ “ वालसयसकणीय " सर्पाहि सेडो लयपुर लवाना लयथी व्याप्त स्थानोभे # उवेति " तेथे आस अरे हे ॥ सू० ११ ॥
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy