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________________ सुदर्शिनी टीका २०३सू०१७ भदत्तादायिन यत्फल प्राप्नुवन्ति तनिरूपणम् ३५१ मिस्त्यक्ताः । निरासा ' निराशाः = जीवनायाशारहिताः 'बहुनणधिकारसद्दलज्जाश्या ' जनधिकारशब्दलज्जायिता' बहूनां जनाना विकारवचनैः लनायिता:ज्जा प्रापिता तथापि अलज्जाः = निर्लज्जाः धृष्टलात् 'अणु. द्वापर. ' अनुनद्धक्षुधापराद्धाः अनुबद्धभुधया सततसुभुक्षया अपराधाः पीडिताः 'सीउण्हतण्हवेयणदुघघटिया' शीतोष्णतृष्णावेदनादुर्घट्ट घट्टिताः , तर तेन उग्णेन तथा तृष्णया-पिपासया क्षुधयाच या दुर्घटाः= असया वेदना =पीडाम्ताभिः - दुर्घट्ट अतिनिकटम्-अतिशयेन घहिताः =पीडिताः 'विषण्णमुहविन्छपिया ' विवर्णमुखविच्छविकाः = तन विषणं मुख-मिरूपयुक्त मुख थे। ते तया पिच्छविकाः = कान्तिरहिता निस्तेजसः । 'विइलमलिगदुबला' विफलमलिनदुर्वला: तन पिफला कारागारे नियन्त्रितत्वादनिष्टफला मनिमापदना दुर्गलाश्व-शक्तिरहिता ये ते तथा 'किलता' मित्रजन भी इन्हें छोड़ देते है । (निरासा ) ये चोर वहा जीवत पर्यन्त रहने के कारण अपने जीवन की आशा छोड़ देते है। (बहुजणधिकार सहळनाइया ) अनेक जनो द्वारा धिकार के शब्दों से ये लजित किये जाते हैं। फिर भी इन्हें जैसी लज्जा आनी चाहिये जैसी नहीं आती है । कारण ये बहुत अधिक पृट पन जाते है। (अणुपद्धखुहापरद्धा) रातदिन ये क्षुधा से पीडित बने रहते हैं। (सीउण्डतण्डवेयणदुगह पहिया) शीत, उष्ण, तृष्णा, क्षुधा जन्य असह्यवेदनाओंसे ये सदा (दुघघट्टिया) अत्यन्त दुःखित बने रहते है। ( विवण्णमुरविच्छविया ) इनका मुख सदा कुम्हलाया हुआ रहता है और काति भी इनकी मलिन रहती है । (विहलमलिणदुव्यला) कारागार मे बद रहने के कारण ये (विहल) अनिष्ट फलवाले रोते हैं-अर्थात् जो ये चाहते है वह इन्हें नहीं मिलता તેમને ત્યાગ ક છે “નિહાઇ ને ચોરે ત્યાં જીવન સુધી રહેવાને કારણે पाताननी मा छोड छ "बहुजरिकारसद्दलज्जाइया' मने दो। ધિકારના શૉંથી તેમને શરમિંદા કરે છે, છતા પણ તેમને એવી શરમ થતી નથી, २५ है तेसो घट 45 गया हय छ, “अणुषद्धखुहापरद्धा " रात हिवस ते भूमयी पी3141 छे “सी उद्दतण्डवेयणदुरपट्टिगा” ही, परभी, क्षुधा तृषा माहिना मसह यनाथा तसा सहा 'दुघदृघट्टिया" सत्यत भी २९ छ 'विवाविच्छविया" तभनु भुम सही सान-हास २२ छ भने तेभनी ति प भलिन २७ छ “विहलमालेणदुबला" रागृहमा २७पाने २0 तसा 'विहल " अनिष्ट पारा डाय छे, मेटले ।
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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