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________________ सुदर्शिनी टीका २० २ सू० ३ येन भावनालोक वदन्ति तिनिरूपणम् १७२ लघुस्वकाः पुच्छात्मानः, ' असचा' असत्यासत्यविमुग्वा — गारपिया ' गौरविका मद्धयादि गोरपयुक्ताः, असञ्चद्वारणाहिचित्ता' असत्यस्थापनाधिचित्ता:असत्यानाम् असदर्याना स्थापनायां प्ररूपणायामपिचित्त येपा ते तथा असत्यार्थमण्डनपरा इत्यर्थः, ' उच्चन्छदा' उन्चो-महान् सात्माप्रशसापरः उन्दा=अमिप्रायो येपा ते तथा स्वात्मप्रशसापरायग इत्यर्थः, 'अणिग्गहा' अनिग्रहाः अवशेन्द्रियाः 'अणिरता' अनियताः अनियमान्तः उन्देन-स्वाभिमायेण 'मुक्क वाया' मुक्तवाचा यथा तथा भापिणः अयमा 'वयमेव सिद्धवादिन ' इति वदन्ति, के वदन्ति ? 'जे' ये 'अलियाहिं ' अलीकम्योऽसत्येभ्यः 'अविरया' अविरता अनिटत्ताः भवन्ति ॥ सू-३ ॥ तथा-'अपरे नत्यिगाइणो' इत्यादि मूलम्-अवरे नस्थिगवाइणो वामलोगवादी भणति, नस्थि जीवो, न जाइ इह परे वा लोए, नय किंचि वि फुसइ पुन्नपाव, नस्थिफलं सुकयदुकयाण । पंचमहाभूइयं सरीर भासंति आपको तुच्छ मानने वाले मनुप्य, (असच्चा) सत्य से विमुख रहने वाले मनुष्य, (गारविया) अद्वयादि के गौरव से युक्त बने हुए मनुष्य, (असचट्ठावणाहिचित्ता) असत्यपदार्थ की प्ररूपणा करने वाले मनुष्य, (उच्चच्छदा) अपने आपकी प्रशसा करने वाले मनुष्य, (अणिग्गहा) जिनकी इन्द्रियाँ वश में नही है ऐसे मनुष्य, (अणिययाउदेण) नियम से रहित मनुष्य, ( मुकवाया ) यथातथा बोलने वाले मनुष्य, और (जे य) जो मनुष्य (अलियाहिं) असत्यभापण से ( अविरया) विरति रहित ‘(भवति ) होते हैं वे जो मन मे आता है सो बोल दिया करते हैं। इस प्रकार के चोलने में अलीक भाषण का दोप लगा करता है ।सू३॥ भनुष्या, " असच्चा" सत्यथा विभुम २नार मनुध्यो, " गारविया" ऋद्धि माहिना मलिभानथी युद्धत गनेस मनुष्यो, "असन्चट्ठावणा हि चित्ता" आसत्य पानी १ प्र३५४ा ४२नार मनुष्यो, " उन्चच्छदा" माय 43 ना२ alt, “ अणिग्गहा"मनी धन्द्रिय अाभूमा नथी तवा सोनी, " अणिययाछदेण" नियम बनाना मनुष्यो-मनियमित खा"मुकवाया" म तेम मासना। सी, भने “जे य" २ भनुष्य " अलियाहिं " सत्य मापYथा " अविरया" विरति रहित “भवति" डाय छ, तेसो भनमा आये तभ બેલી નાખે છે તે રીતે બેલવાથી અસત્યભાષણને દોષ લાગ્યા કરે છે સૂર
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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