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________________ सुदर्शिनी टोका अ० ५ ० ५ परिग्रहो यत्फल ददाति तनिरूपणम् ५१५ 'परिग्सहस्स' परिग्रहस्य ' फलविनागो' फलविपाक 'इहलोइओ' इहलौकिकः, मनुष्यभवापेक्षया, 'परोइनो' पारलौकिक', नरकतिर्यग्गत्याद्यपेक्षया ' अप्पसुहो' अल्पमुखः - अल्पमुख यस्मिन् स तयोक्त', 'हुदुक्खो' हुदुःख:- बहूनि दुःखानि यस्मिन् स तपोक्त', 'महन्भओ' महाभयः 'हुरयपगाढो ' हुरजः प्रगाढः जः प्रभूतकर्म मगाठ = दुर्मोच यस्मिन् स तथोक्त, दारुणो= रौद्रः 'क्सो' वर्कश= कठिन', 'अमाओ' अशात - अशात वेदनीयरूप अस्ति, एप परियह' ' वासमहस्सेर्हि ' वर्षसहस्रैः = अनेकपल्योपमसागरोपमकालैरुपभोगेन 'मुच ' मुन्यते । ' न भवेयइत्ता जत्थिहु मोक्खोति 'न अवे दयिताऽस्ति मल्ल मोक्षः = परिग्रहफ दमनुपभुज्य नास्ति मोक्षः 'ति एवमाहसु ' सागरोपम प्रमाणकालतक घूमता रहता है । ( एसो मो परिग्गहस्सफलवियागो ) परिग्रह का यह फलविपाक (इरलोइओ) मनुष्यभव की अपेक्षात (परलोइओ) परलोक-नरक - तिर्यच गति की अपेक्षा ( अप्पो ) अत्पसुख वाला तथा ( पहुदु ग्वो) बहु दुःखवाला है। (मओ) महाभयकर है। (बहुरयप्पगाढो ) इसमें जो प्रभूत कर्मरूप रज का वध होता है वह प्रगाढ बड़ी मुश्किल से दूर किया जाय, ऐसे होता है। तथा (दारुणो ) यह फलरूप विपाक दारूण भयानक (कक्क्सो) कर्कश कठिन एव (असाओ) अशात अशात वेदनीयरूप होता है। (वासस हस्सेहिं) इसी परिग्रह रूप पाप का फल अनेक पल्योपम एव सागरोपम प्रमा कालतक भोगने से (मुच्चह) छूटता है । (अवेत्ता) विना इसका फल भोगे उन जीवों को (न अत्थि मोक्खो ) मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती अभ्यारे छे " एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो " परिवहन या इसवि परलोइओ " પરલેાક महसुण वाणी तथा 66 "" પાક इहलोइओ " मनुष्य लवनी अपेक्षाये तथा नरगति भने तिर्ययगतिनी अपेक्षाओ " अप्पमुहो" भडा लय ५२ छे, “ बहु होय छे ते प्रगाढ भडा बहुदुक्सो ” वधारे हुषाणो छे, " महन्मओ" रयपगाढो " तेभा ने विद्युत ३५ २४नेो जघ भुश्जेसीओ निवारी शाय तेवा - होय छे, तथा " दारुणो " ते इस विचा દારૂણ-ભય કર " कक्क्सो ” शनि, मने " असाओ " અશાત-અશાત वेहनीय३य होय छे " बाससहस्सेहिं ” ते परियहु३ग पायनुज मने, यस्थान પમ અને સાગરાપમ પ્રમાણ કાળ સુધી ભાગવવાથી જ ८८ मुच्चइ " लवो तेभाथी छूटी शो " अवेयइत्ता " तेनुज सोगव्या विना लवोने "न अत्थी मोक्सो ” भोक्षनी प्राप्ति थती नथी " ति एवमाहमु "ते प्राश्नु अथन ro ६५ LL L
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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