SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ प्रश्नम्याकरण स्तासा ' पह' पतिः, स च महाभीमदर्शनीयः म तथा त 'दुरणुचर ' दुःखेना नुचर्यते इति दुरनुचर 'सिमप्परेम' रिपममपेश-पिमा दुस्साभ्य प्रवेशो यस्मिन् स तथा त 'टुपसुत्तार ' दुम्योत्तार =दु सेनोत्तरण यस्य स तथा व 'दुरासय ' दुरासदन्दुप्पाप दुराश्रय दुःखटम्यानम्प 'लपणसलिपुण्ण ' लवण सलिलपूर्ण = क्षारजलभृतम् , ' असियसियसमुन्छियगेहि ' असितसितसमुच्छि तक-तत्र असिता:-कृष्णाः सिता:-शुहाच पटाः समुन्द्रितका =उपरि नद्धा येषु प्रवहणेषु तानि तथा तैः 'इत्यतरगेहिं' दक्षतरकै अन्य यानपाद्यपेक्षयाऽतिशय वेगशीलैः 'चाहणेहिं ' पाइनः स्कन्याः पाहणेः ' अवता' अतिपत्यआक्रम्प ' परदबहरा' परद्रव्यहराः पापनापारगशीलाः 'निरणुकपा' निरनु कम्पा:-कृपारहिताः 'णिरमयरखा' निरपेक्षाः अपेक्षारहिता परलोकभयरहिताः नराः जना ' समुद्दमज्झे' समुद्रम ये 'गत गत्या जणस्स 'पोते' पोतान नौकान् ' हणति ' मन्ति-विनाशयन्ति ॥ सू-१०॥ में भयकर है (दुरणुचर ) तथा जिसमें अनुचरण करना-फिरना बहुत ही आयास साध्य कठिन है । इसीलिये (विसमप्पवेस ) जिसमें प्रवेश करना बहुत कठिन होता है । (दुक्खोत्तार ) जिसका पार करना पड़ा मुश्किल होता है (दुरासय ) जो सदा दुःखदस्थानरूप है। (लवणमलिलपुण्ण ) क्षार जल से सदा भरा रहता है ऐसे समुद्र को ( असिय सिय समुच्छियगेहिं ) कृष्ण एव शुभ्रवस्त्र जिनके ऊपर बाधा गया है ऐसी (हत्थतरगेहिं ) जो अन्य यान पात्रों की अपेक्षा पानी के ऊपर बहुत जल्दी तैरती है ऐसे (वारणेहिं) नौकाओं द्वारा (अहवइत्ता) आक्रमित करके (परदवा ) परद्रव्य को हरण करने वाले (निरण कपा) निर्दयी (णिरत्यक्खा) जो अपने परभव को सुधार ने का भावना से रहित होते है ऐसे (नरा) चोर मनुष्य (समुहमञ्झे गतूण) छ, “दुरणुचर" तथा मा ५२७ मतिशय हिन छ. "विसमप्पवेस" रेभा प्रवेश ४२ घण। भुश्द छ, “दुक्सोत्तार" ने सागवा मात शय मुसि छ, “दुरासय" रे सहा म स्थान ३५ छ, “ लवणसलिल पुण्ण" २ मा पानीथी सहा २५२ २ छ, सेवा समुद्रन “ असिमसिय समुच्छियगेहि " मना 6५२ आणा मन स३६ १७ मामा मेवी “हत्य सोहि अन्य पाहुना उरता पाणी 6५२ पधारे उपथा तरे छे भया " नाम द्वारा “अइव इत्ता' भए। उशने " परदव्वहरा परधनतु २५ ४२ना, “निरणुकपा" निय भने “णिरवयम्सा' पाताना ५२०१२ सुधारवानी भावनाथी २खित मेवा 'नरा" सर सी" समुरमञ्झे
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy