SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुदशिती टीका अ०३सू०१७ भदत्तादायिन यफल प्राप्नुवन्नि तन्निरूपणम् ३४९ 'मुडपरसहि ' गुण्डपरशुभि भग्नधाग्कुठारेः 'अट्ठारसमडिया' अष्टादशस्थानेषु खण्डिता कियन्ते कर्ण नयन-नासिको--कर-चरणाना द्वय डमिति द्वादश, निता-ग्रीवा-कण्ठ-पृष्ठ-पक्ष स्थल-गुह्येन्द्रियमिति पदमिलित्वाऽष्टादशस्थानानि भवन्ति । तथा 'केई' केचित् 'उपत्ताणोहनासा' उत्तत्तकप्ठिनासा = उत्कत्ताः छिपा वर्णः ओष्ठः नासाम्नासिका च येपा ते तथा 'उप्पाडिनयणदसणसणा' उत्पाटितनयनदशगटपणाः, तर-उत्पाटितानि उन्मूल्तिानि नयनानि दशना:दन्ताः सपणा- अण्डकोशा येषा ते तथा ' जिभिदियचिया' जिदेन्द्रियान्चिताः जिरवेन्द्रिय अश्चितगमितम्-आकृप्ट येपां ते तथा आकृप्टजिवेन्द्रियाः 'लिण्णफण्णसिरा' छिन्नकर्णशिराः छिगकर्णनाड्यः, 'पणिज्जति' मणीय तेशूलाधारोपणाय मध्यभूमी नीयन्ते । केचित् 'असिणा छिन्नति' हाथी के पैरो से मर्दित होने के कारण इडिपसलिया चूर-चूर हो जाती है और वे बड़े दुःसी होते हैं। तथा कितनेक ( पावकारी) पापफारी अदत्तग्राही जन (मुडपरसुहिं ),भग्न धार वाले कुठारों से अट्ठा रह स्थानो मे-कर्ण २, नासिका २, नयन २, ओप्ठ २, कर२, चरण २, (१२) जिह्वा १३, ग्रीवा १४, कठ १५, पृष्ठ १६, वक्षस्थल १७, ए गुह्येन्द्रिय १८, में-बड़ी धुरी तरह से खडित कर दिये जाते हैं । तथा (केइ) फितनेक चोरों के ( उफत्तकण्णोद्वनासा) कान नाक एव ओंठ काट दिये जाते है तथा (उपाडियनयणदसणवसणा) नेत्र फोड़ दिये जाते है दात और अडकोश उसाड लिये जाते है । (जिभिदियचिया) जीमें खेंच ली जाती है। (छिण्णकण्णसिरा) कान की इसे तोड दी जाती हे । एव इस तरह की स्थिति मे करके चोरो को वे राजपुरुप (पणिज्जति) રાવાને કારણે તેમના શરીરના હાડકા અને પાસળીઓના ચૂરે શૂરા થઈ જવાથી ते बी पी पी मनमवे छे तथा टा४ “पारकारी" पापी महत्ताही सोनीने "मुडपरसुहि " धार जी (मुही)ीमाथी "अट्ठोरससडिया" मार જગ્યાએ ઘણુ જ ખરાબ રીતે મારવામાં આવે છે તે અઢાર અને આ પ્રમાણે છે કાન ૨, નાસિકા ૨, નયન ૨, હઠ ૨, હાથ ૨, પગ ૨, જીલ્મ, यौपा, 36, ४, ५२२५८स, सने शुद्यान्द्रय, तथा "के" ४८मार यारीना "उपात्तकण्णोद्वनासा" न, ना मने 88 पी नापयामा मात्र छ तथा " उप्पाडियनयणदसणवसणा" सामाडी नाणे छ, हात भने त - Gमेडी नाणे छ, 'जिभिदियचिया " मेथी दवामा मा छ, “छिण्णफण्णसिरा" साननी नसे तs mपामा मावे छ तभनी वी खासत ४शन Aryरु त योराने “ जति" शूजी ५२ २११पाने स
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy