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सुदर्शिनी टीकाम० १ सू० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम् ६१३ 'भिक्षालाभो भविष्याति न वे ' त्यादि विपादरहितः, तथा-' अपरितत जोगी ' अपरितान्तयोगी अलाभादिपु तन्तनाटादि शब्दवर्जितः, तथा-'जयणघडणकरणचरियरिणयगुणजोगसपउत्ते ' यतनघटन करणचरितविनयगुणयोगसमयुक्तः, तत्र-यतन माप्तेषु सयमयोगेषु उद्यमः, घटनम्=अप्राप्तसयमयोगमाप्ति चेटनम् , एतद् द्वय कुरुते यः स यतनघटनकरणः, तथा-'चरितनिनया सेरितो येन स चरितविनयः, तथा-गुणयोगेन-समाधिगुणयोगेन समयुक्तो य. स-गुण योगसप्रयुक्ताः, एतेपा कर्मधारयः, एतादृशो 'भिख ' भिक्षुः साधु भिक्खेसणानिरए' भिक्षपणानिरतः भिक्षागवेपणाया निरतो भवेदिति सम्बन्ध , एवम्भूतेन भिक्षुणा भैक्ष गवेपितव्यमिति भाव । अथोपसहरम्नाह-'इम च' इत्यादि-' इम च ण समजगजीवरकखणदयट्टयाए पावयण' इद च खल्लु 'पावयण' प्रचन 'सव्यजगजीपरखणदयट्टयाए ' सर्वे ये जगज्जीयाः पड्जीपनिकायाः, तेपा रक्षणरूपा या दया-अनुकम्पा तदर्य-सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्थम् ' भगवया ' भगवता महागीरेण 'सुकहिय' सुकथितं न्यायागाधितत्वात् , ररित होकर, अरुण-अपने दुख को किसी के पास किसी भी रूप में प्रकट नहीं करके, अविपादी-"भिक्षा का लाभ मुझे होगा या नहीं होगा" इस प्रकार के विपाद भाव को छोड करके अपरिततजोगीभिक्षावृत्ति नहीं मिलने पर तनतनाने की वृत्ति का परित्याग करके, तथा- यतनघटनकरण -प्राप्त सयम में उद्यमशील तथा अप्राप्त सयम की प्राप्ति करने मे निरन्तर चेष्टाशील, ऐसा साधु कि जो चरित विनय-विनय से युक्त वना हुआ है, तथा गुणयोगसप्रयुक्त-समाधिगुण के योग से जो युक्त हो रहा है ऐसा होकर भिक्षु-मुनि भिक्षेपणा मेभिक्षा की गपेपणा करने मे निरत होवे । ( इम च ण पावयण) यह प्रवचन (सव्वजगज्जीवरक्वगदयठाए) पट्ट निकायरूप जगत के जीवो की रक्षणरूप दया के निमित्त (भगवया सुकत्यि) भगवान् अविपादी-" भने निशाना सास भी नही भणे" मे २ना विवाह लापने छ।सने, अपरिततजोगी-मिक्षा नही भाता तनतनाव नी वृत्तिनो पर त्याग शन, तथा यतनघटनकरण-भात सयभमा मशीद तथा मास सयभनी प्राप्ति २वामा निरन्तर प्रयत्नतीस, व साधु २ चरितविनय विनयथी युक्त थयेद छ, तथा गुणयोगसप्रयुक्त-समाधि गुशुना योगथा २ યુકત થયેલ છે, એવા થઈને ભિક્ષુ-મુનિ ભિલાની ગવેષણ કરવાનો પ્રયત્નશીલ थाय "इमच ण पावयण" मा अवयन "सव्यजगज्जीव रस्षणदयद्राए" पगतना ७४आयना यानी २२॥३५ ध्याने निभित्ते “भगवया सुकहिय "