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________________ ટાર मायाकरण गुत्ते' मनोरचनकायगुप्तच अमणो भवति । जापरिग्रहमार प्रक्षोपमया वर्णयन्नाह -'जो सो' यः सः सपरपादपो यः स. स चरम सपरद्वारमिति योग कीदृशः सबरपादपः इत्याह-पोगरवयणविरइपरित्यपाविद्यप्पगारो' पीरवरवचन विरतिप्रविस्तरबहुविधपकास बीयरस्य भगातो महावीरस्य यदयचनम् आना, ततः सकाशाद् या पिरति परिग्रहानिटत्ति सैर प्रपिस्तरो रिस्तरयुक्तो गहविध' अनेकविधः-रिचिापियापेक्षया क्षायोपगमाघपेक्षया च पादपपक्षे मूलकन्दाद्यपेक्षयाऽनेकविध प्रकारः भेदो यस्य स', तथा-'समत्तविमुद्धबद्धमूलो' सम्यक्त्वरिशुद्धबद्धमूला सम्यक्त्वमेर-सम्यग्दर्शनमेव विशुद्ध = बद्ध मूल यस्य ( अमूढे ) मृढता से वर्जित होकर तथा (मणवयणकायगुत्ते ) मन, वचन और काय की सरलता से सपन्न बनकर (भगवओ) भगवान् जिनेन्द्र के (सासण ) शासन का (सहरह) श्रद्वान करता है वही श्रमण सच्चा श्रमण है। अब सूत्रकार इस अपरिग्रहसवर का वृक्ष की उपमा देकर वर्णन करते हैं--(जोमो) जो यह अन्तिम सवरद्वार रूप सवरवृक्ष है वह ( वीरवरवयणविरइपवित्थर विप्पगारो) अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की आज्ञा से जो परिग्रह से जीव की निवृत्ति होती है उम रूप है । यह परिग्रह से निवृत्ति ही इस वृक्ष के विस्तृत अनेक प्रकार-भेद है । तात्पर्य इस का यह है कि जिस प्रकार मृल कन्द आदि की अपेक्षा को लेकर एक ही वृक्ष विविध प्रकारों वाला माना जाता है उसी प्रकार यह परित्यागरूप अपरिग्रह मी विचित्र विषयों के त्याग की अपेक्षा और कर्मों के क्षयोपशम आदि की अपेक्षा से अनेक प्रकार का होता है । (समत्तविसुद्धबद्धमलो ) इस वृक्ष कामनीने भने “ अमूढे " भृढताथी २हित यधने तथा “ मणवयणकायगुत्ते " भन, क्यन मने जायनी सताथी युत मनाने ' भगाओ' सपान लिने न्छन “ सामण " ॥सननु “सदहइ' श्रद्धान ४३ ते श्रम सायोश्रम छ હવે સૂત્રકાર આ અપરિગ્રહ સ વરને વૃક્ષની ઉપમા આપીને તેનું વર્ણન उरे छ-"जो सो" २ मा पनि परिवार ३५ अपरियड स१२ वृक्ष छत "वीरवरवयणविरइपवित्थरबहुविहप्पगारो" मतिम तीथ २ मावान મહાવીરની આજ્ઞાથી જે પરિગ્રહથી જીવની નિવૃત્તિ થાય છે તે રૂપ છે. તે પરિગ્રહથી નિવૃત્તિ લેવી એ જ આ વૃક્ષને વિસ્તૃત અનેક પ્રકાર–ભેદ છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ મૃળ, કદ આદિની અપેક્ષાએ એક જ વૃક્ષ જેમ અનેક પ્રકારે વાળુ મનાય છે તેમ આ પરિત્યાગરૂપ અપરિગ્રહ પણ વિચિત્ર વિય ચેના ત્યાગની અપેક્ષાએ તથા કર્મોના ક્ષપશમ આદિની અપેક્ષાએ અનેક प्रानु जय छ “ समत्तविसुद्धबद्धमूलो" सभ्य२४-२ मा वृक्षतु विशुद्ध
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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