________________
"
,
सुदर्शिनी टीका २०५ सू०८ 'चलुरिन्द्रियसमर' नामक द्वितीयभावनानिरूपणम् ९१३ तेजो यदि रक्तानुगत पित्तानुगत क्लेमानुगत च भवति, तदा जातकः क्रमेण रक्ताक्षः पिङ्गाक्ष शुहास भगति । तथा — विनिहतः - विनिहतचक्षुष्क इत्यर्थः, उत्पन्यनन्तर यस्य नेत्रद्वय नष्ट स विनिहत उच्यते । तथा सप्पिसलग सपिशाचकः = पिशाचगृहीत इत्यर्थ । अ-सर्पिशल्यकः, इतिच्छाया । तत्र - सर्पी - सर्पतीति सर्पी, सर्पणशील इत्यर्थः । अय हि पीठे समुगविश्य तत् जङ्घायोः कटया च दृढ हस्तनोः पादुके आदाय तदाश्रयणेन सर्पति= सरति, अन एराय सर्पेत्युच्यते । अय किल गर्भदोपात्कर्मदोषान्च भवति । शुल्कः हृदयशल्पादि रोगवान् । उभयो कर्मधारय । तथा-व्याधिरोगपीडित:= व्यापिना - चिरस्थायिपीडया, रोगेण- सोघातिपीडया च पीडितो यः स तथोक्त एपा समाहारद्वन्द्वस्तत्तयोक्तम्, तथा-' विगयाणि य मयकलेवराणि ' विकृतानि च मृतकले राणि तथा - ' सकिमिणकुहिय च ' सकृमिकुथित च सह कृमिभिः, है तो वह शुक्राक्ष उत्पन्न होता है। विनित विनितचक्षु उत्पत्ति के बाद जिसके नेत्र फूट जाते हैं वर विनित्तचक्षुक कहलाता है ऐसे प्रागी नपिसल्ला - पिशाचगृहीत अथवा सर्विशल्यक-सप- पीठ पर बैठ कर जो उसे दोनों जघाओं से कटि पर मजबूती के साथ बांधकर और दोनों में दो कष्ट आदि की पादुकाओं को लेकर उसके सहारे से सरकना है उसका नाम सर्दी है ऐसे सरकने वाले व्यक्ति को कि जो गर्भदोष से और अपने कर्म के दोष से अशुभ कर्म के उदय से उत्पन्न होता है, ऐसा शल्यक- हृदय शल्यादि रोगवाला, व्याधिरोग पीडित - व्याधिरोग से पीडित प्राणी, अर्थात् चिरस्थायी पीडारूप व्याधिसे तथा सात रोगरूप पीडा से जो कष्ट पा रहा है ऐसे दुःखित जीव, इन सब को देख कर इनमे द्वेष त घृणा नहीं करनी चाहिये । ( विगयाणिय भयकलेवराणि) विकृत हुए मृतक कलेवरों को, ( सकिमिण
थाय छे विनिहत-विनिहतययु-भ पी लेनी खामो छूटी लय छे ते विनि इतययु उडेवाय छे सर्पिसलग - पिशाथगृहित अथवा राशिट्य -साथ पीठपर એસાને અથવા અન્ને જાઘને કિટ પર મજબૂત રીતે માધીને અને ખને હાથમા એ લાકડા આદિની ઘેાડી લઈને તેની મદદથી જે જમીનપર સરકે છે તેને ર્ષિ કહે છે એ રીતે સરકનાર વ્યક્તિ કે જે ગર્ભ દોષથી અશુભ કર્માંના ઉદયથી ઉત્પન્ન થાયછે, " शल्यक" - हृदयशट्य आदि रोगवाणा, व्याधि रोगपीडितव्याधि रोगथी पीडाता પ્રાણી એટલે કે દીકાળતી ચાલ્યા આવતા પીડારૂપ વ્યાધિથી તથા હુ મેશ રેાગરૂપ પીડાથી પીડાતા હુ ખી જીવે એ મધાને જોઈ ને તેમના પ્રત્યે દ્વેષ કે ઘૃણા કરવી જોઇએ નહી " विगयाणिय मयकलेवराणि " વિસ્તૃત થયેલ મૃત શરી
प्र ११५