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सुदर्शिनी टीफा ०५सू० २ प्रसस्थावरायपरिग्रहनिरूपणम्
८४७ सजमनायगेहि तित्थंकरहि सव्वजगजीववच्छलेहि तिलोय. महिएहि जिणवरिदहि एम जोणी जगाणं दिहा, न कप्पड़ जोणी समुच्छिदोत्ति । तेण हि वजेति समणसीहा ॥सू०२॥ _ टीका-'जत्थ' यत्र-परिग्रहरिरमणलक्षणे चरमसबरद्वारे 'गामागरणग रखेडाबडमडरढोणमुह पट्टणासमगय ' ग्रामाफरनगरखेटकटमडम्मद्रोणमुखपतनाश्रमगत च, ग्रामातीना व्यारया पूर्ववद् वो या, तेषु गत=स्थित च ' किंचि' किञ्चित-रिमपि वस्तु ' अप्प वा' अल्प वा स्वल्पमूल्यकपर्दिकादिक चा 'ह चा' बहु बहुमूल्य रत्नादिक वा 'अणु चा ' अणु चा=प्रमाणतो लघु मुक्ता फलादिक या, 'यूल वा' स्थल चाम्प्रमाणत स्यूल काष्ठादिक चा, अत्र सर्वत्र च शन्दो वाऽर्थकः, 'तसथावरकायदधनाय' सस्थावरकायद्रव्यजातन्नाउसकाय-शिप्यादिक स्थावर माय-रत्नादिक, तद्प द्रव्यजात 'मणसा पि' मन
अव मत्रकार उस स्थावरविषयक अपरिग्रह का वर्णन करते हैं'जत्य न कप्पड ' इत्यादि ।
टीकार्य-(जत्य)जिम परिग्रहविरमणरूप अन्तिमचरमसवरबार मे स्थित साधु को (गामागरनगरसेडकपडमडरदोणमुहपटगासमगर य) ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्यट, मडर, द्रोणमुख, पत्तन और आश्रम, इनमे रक्खी हुई, भूली हुई, पडी हुई (किचि चि) कुल भी चीज ( अप्प वा) चाहे वह कोडी आदि जैसी अल्पसत्यवाली हो (ह बा ) चाहे रत्नाटिक जैसी वहुमत्यवाली हो ( अणु वा ) चाहे छोटी हो (यूल वा) चाहे बडी हो, (तसथावर कायदव्यजाय) चाहे त्रस, स्थावरकायरूप द्रव्य जात हो-शिष्यादिक उसकाय है, रत्नाटिक म्यावर काय हैं। उन्हें
હવે સૂત્રકાર ત્રમ સ્થાવર સબ ધી અપરિગ્રહનું વર્ણન કરે છે– 'जत्थ न कापड" त्या :
stथ-' जत्य" २ परियड विभ५३५ मतिम ५१२वारनु माराधन उता साधुने “गामागरनगरसेडकबडमडवदोणमुहपट्टणासमगय च” ग्राम, આકર નગર, ખેટ, ડબ ૨, મડબ, દ્રોણુમુખ, પત્તન અને આશ્રમ, તેમા राणेसी, भूखथी ५डी २९सी, ५ २७सी “किंचि ”ि उ ५४ थी। "अप वा" सोते ही माहवा नीमतनी डाय, "वहुवा" म ते २ल्ला हु मृत्यवान डाय, " अणु वा " म नानी जाय, "थूल वा" उ माटी काय, 'तसथावरकायदव्यजाय " लो ब्रम, स्या१२७१य રૂપ દ્રવ્ય જાત હેય-ષ્યિાદિક ત્રસકાય ગણાય છે, રત્નાદિત સ્થાવરકાય ગણાય