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________________ ૭૨૪ प्रश्नम्याकरणसूत्रे , नैष्ठिक = सर्वधर्मकर्मपर्यन्तप्रति 'निम्त ' निस्तं गगरूपादेयत्येन निरुक्तम्, अव्यभिचरिता तथा निगस ' निराश्रय कर्मादानरहितम्, 'निर्भय' नि पादरहित 'गुत्तरमुक्तम् तथा-' उत्तमनखसभ-पर-विधियजणममय उत्तमनरगृपभर सुविदितजनमम्मतम - उत्तमा उत्कृष्टा ये नस्टपमाः- नरश्रेष्ठाः 1:-जिना तथा - मालवन्तः= चक्रतिवाद निःसाधुलोका स्तेषा समतम् = अभिमत यत्तत्तथा तथा - ' परममा धम्मपरण 'परमपारणं परम माधूनाम् उत्कृष्टपत स्त्रिन धर्मचरण=धर्मपालनम् यत्तत्तथा, पतारणमिद दत्तानुमानमपसारम् । अत्र तृतीये आभ्यन्तर परिग्रह दूर हो जाता है, अतव्रता और आभ्य न्तर की ग्रन्थि से रहित होता है तथा (ट्टिय ) समस्तधर्मो के प्रकर्ष पर्यन्त यह रहता है, एव (निरुत्त ) सर्वज्ञ प्रभुने इसे उपादेयेरूप से कराहै, अथवा यह अन्यभिचरित है, अर्थात् जितना भी सकल सयमी का धर्म है उसके साथ यह अभावी है । (नीरामव) इसमें नवीन कर्मो का आदान नही होता है । (निव्भय ) नृपादि का भय इसके आचरण में माधु को नहीं रहता है इसलिये यह निर्भय है । ( विमुत्त) लोक दोष आदि से यह रहित होता है । ( उत्तमनरवसभ, पवरथलवग - सुचिहियजणसमय ) उत्कृष्ट जो नरवृषभ - जिनदेव हैं तथा बलदेव वासुदेव आदि जो प्रवर लवत व्यक्ति है, तथा सुविहितजन जो साधु लोक हैं, इन सन के लिये यह मान्य है । तथा ( परमसा धम्मचरण) परमसाधुजनों - उत्कृष्टतपस्विजनों का यह धर्माचरणरूप | ( अदत्तादानविरमण ) ऐसा यह दत्तानुज्ञातसचरद्वार है । इस થઈ જાય છે એટલે કે આ વાત બાહ્ય અને આભ્યન્તરની ગ્રન્થિથી રહિત होय छे, तथा "ट्ठिय " ते समस्त धर्भेनु पर्यन्त छे, भने “ निरुत्त" સર્જેન પ્રભુએ તેને ઉપાદેયરૂપે બતાવ્યુ છે, અથવા તે અન્યભિચારિત છે, એટલે કે સચમીના જેટલા બ્યા છે તેની સાથે તે સુઞગત છે " निरासव " तेनाथी नवीन अधाता नथी " निव्भय "तेने सायरवाभा साधुने नृपा हिनो लय रहेता नथी तेथी ते निर्भय हे " विमुक्त' बोल, होष आहिथी ते रहित होय छे" उत्तम रसभ, परबग - सुविहिय जणसमय " ने श्रेष्ठ નરવૃષભ–જિનદેવ છે, તથા બળદેવ વાસુદેવ આદિ જે પ્રબળ ખળવાન પુરુષા છે, તથા સુવિહિત જન જે સાધુલે છે, તે સૌને માટે તે માન્ય છે તથા 'परमसाहुधम्मचरण જે પરમ સાધુજના ઉત્કૃષ્ટ તપસ્વીજનાને માટે તે ધર્માચરણરૂપ છે, એવુ આ અદત્તાદાન વિરમણુ-દત્તાનુજ્ઞાત સવરદ્વાર છે મા ८८ = · ܕܐ 1
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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