SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रभव्याकरण कथयन्ति, 'गोडासेहायसल्लगमरडगे य साहेति लुद्धकाण ' गोधाः सेहांच शल्यक शरटकाच साधयन्ति लुधकाना गोधा: भुजपरिसपैनिशेषाः 'गोहाः' इति भाषा प्रसिद्धाः, सेहाथ-भुजपरिसर्पविशेषा एव' सहसहेली' इति भापा प्रसिद्धास्तान् , शल्पक शरकटाच-शल्यकाः 'सीसोलिया' इति प्रसिद्धाः, शरटका कल्लासाश्च 'गिरगिट ' करगेटिया इति मापा ममिद्धास्तान , लुफानापापर्धिकान् 'शिवरी' इति प्रसिद्धान् प्रति कथयन्ति । 'गयफुलपानरकुले य साहे ति पासि याण' गजकुलमानरकुलानि च साधयन्ति पाशिकाना-गजलानि वानरकुलानि च पाशिकाना पाशेन गजबन्ध विशेपेण चरन्ति ये ते पाशिकाः गजादिपन्धनकारका स्तान् कथयन्ति । 'सुकवरहिणमयणसालकोइलहसफुले सारसे य साहे ति पोसगाण' शुफार्दिमदनशालमोकिल इसकुलानि सारसाच साधयन्ति पोपमाणातर शुकशः प्रसिद्धा, बर्हिणो मयूराः मदनशाला =सारिका', कोफिला', हसाच प्रतीता तेपा यानि कुलानिवृन्दानि तानि तथा सारसाथ, पोपराणा-पक्षिपालकान् प्रति कथयति। धजायण च साहे ति गोम्मियाण' वधरन्धयातन च सर्प के निवासस्थानों को पतला देते हैं। (गोरा सेहा य सलग सर• ढगेय साहति लुद्धगाण) गोधा-गोर-सेर-सहेली, शल्यक-सीसोलिया, शरटक-कृकलास गिरगिट-गिरदीला, इन जीवों को जो शिकारी होते हैं। उन्हें पतला देते गयकुल चानरकुले य माहेति पासियाण ) तथा पाशिक जो गज आदिकों को पकड़ने वाले होते है उन्हें राधियों को यदरो को दिग्वला देते हैं, अर्थात् इनके रहने के स्थानों को कह देते हैं। (सुक यरहिण मयणसालकोइलहसकुले सारसे य साहेति पोसगाण) तथा-जो पक्षिपोपक होते है उनसे तोता, मयूर, मैना, कोकिल, हँस इन के विषय में " इनको तुम पालो" ऐसा कहते हैं और " सारसपक्षियों को भी पालो" ऐसी सलाह देते हैं। (वयधज्ञायणं च साहेति गोम्मियाण) ફણા ફેલાવનાર સાપના, મુકુલીના-ડા પ્રમાણમાં ફણ ફેલાવનારા સાપના निवास स्थान की है छ “ गोहा सेहा य सल्ला सरडगे य साहेति लुद्ध गाण' शोधा-घा, से-सी, शव्य-सीसामीयत श२८४-३४सास गटआय कोरे वो सारीमाने मतापी छे “ गयकुलवानरकुलेय साहेति पासियोण' तथा शिओने- माहिन नाराने लाथामा तथा पानशेना निवासस्थान मतादी ? " सुपरहिणमयणसालकोइलहसकुले सारसे य साहेति पोसगाण" तथा पक्षीमाने पाणनारने ते पोपट, भार, भेना કિયલ, હસ વગેરે પાળવાનું કહે છે અને સારસ પક્ષીઓને પણ પાળવાની सवाई माये “वधधजायण च साहेति गोम्मियाण " अ५२५-- ..
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy