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________________ सुदर्शिनीटीका ० ३ सू० १६ चौरा किं फल लभन्ते' ३४५ पापिनः 'खरकम्मएहिं तानिजमागदेहा ' खरसरगतेस्ताव्यमानदेहा अतिचि पणपापाणभृतचर्मकोशगतैः 'कारभरे चातुक' इति भापाममिद्धैः ताडद्यमानदेहा ताडयमानशरीराः तया पातिगनरनारिसपरिसुडा'पातिक नरनारीसम्परिवृताः तर-पोतिकैः-उरलैः नरैनारी मित्र सपरिहताःयुक्ताः मर्यादार्जितनरनारीवृन्दवेष्टिता इत्यर्थ , ' पिन्जिता य नागरजणेण ' नागरजनेन दृष्टु समागतेन प्रेक्ष्यमानाः 'ज्झनेवत्थिया' मध्यनेपश्यिका धरयोग्य नेपथ्य येपा ते वध नेपध्यिका परिधतघातपस्रपाः, 'गरमज्ोग नगरमध्येन=पुरमध्यभागमार्गेण 'पणिज्जति ' मणीयन्तेनीयन्ते 'फिनिणालुणा' कृपणकरुणा =कृपणेष्वपि करुणा पतिदीना इत्य., 'अत्तागा' अनाणात्राणवर्जिता अनर्थनिवारकाभावात् जसरणा' अगरणा:=शरणहीना:-योगक्षेमकारिरहितत्वात् अतएव "अगाहा ' अनाथा: नाथर्जिता 'अवधया' जमान्या मान्यवरहिता तथा ये बड़े अधिक पापी होते हैं। (बरकरसहिं ) अतिचिकण पापाणखडों से भरे हुए ऐसे सैकड़ों कोड़ों की (तालिजमाणदेहा) इनके शरीर पर मारपड़ती है। तथा (वातिगनरनारिसपरिवुडा) मर्यादा वर्जित नरनारि गण से ये वेष्टित रहते हैं । (पिच्छिजता य नागरजणेण ) इन्हें देखने के लिये नागरिकजन आते है । ( वय नेवत्थिया) इनकी वेशभूपा वभ्ययोग्य होती है। (णगरमज्झेण पणिज्जति) राजपुरुप इन्हें नगर के भीतर से होकर ही निकालते है। (फिविणकलुणा ) उस समय ये दीनों से भी अतिदीन होते है (अत्ताणा) अनर्थ को निवारण करने वाला कोई नहीं होने से इनकी कोई रक्षा करने वाला नही होता है, इसलिये ये अत्राण होते है, (असरणा) योग, क्षेमकारी पुरुप से रहित होने के कारण ये अशरण-शरण हीन होते है। (अणासा) अनाय रक्षकके अभाव से ये अनाय होते है, तथा (अरवा ) वधुओ के अभाव से वे "पाया" ते घ र पापी डाय "सरकरसएडि" अतिशय nिsel पत्थना टुसमाथी सारेसा से सोना 'तालिजमाणदेहा" तेमना शरीर ५२ भा२ ५ छे तथा "वातिगनरनारिसपरिखुडा” भर्या २डित श्री पुरुषाना सभृडथी तेम्मा पाटण येसा २९छे "पिच्छिज्जता य नागरजणेण" भनेवाने भाटे नागरि। माव्य! ७३ छ “वज्झनेत्थिया" तेना पाषा वध्यने योग्य आयछे " णगरमज्झेण पणिज्जति" पुनधी तेभने नगरनी पथ्ये थर्डन व लय छ 'किविणकलुणा" त्यारे ते खोजने अतिशय ही नहा अनुभव छ “अचाणा" ते યાતનામાથી તેમને બચાવનાર કોઈ ન હોવાથી તે લોકો ત્રાળ રક્ષણવગરના હોય छ, 'असरणा" तेभने २ सापना२ मा पुरुष न पाथी तशी मर । तेम्मा मनाथ डाय छ, “अबघवा"
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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