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________________ सुदर्शिनी टीका म० ४ स्०३ यात्मवाराधनफलम् ___ तथा-'सत्यममुदमहोदहितित्य । सर्वम्मुद्रमहोदवितीर्थम्-सर्वे च ते समुद्राः सर्ग समुद्रास्तेषु महान उदधिः स्यम्भूरमण समुद्रातुल्य विशालत्वात्ससारोऽपि महोदधिस्तस्य तीर्थमित्र-पारगमनाय नोरेव यत्तत्तथाऽरित ॥ १॥ 'तित्यगरेहि ' इत्यादि-'तित्थगरेहिं ' तीर्यकरैः जिन · सुदेसियमगं' मुदेशितमार्गम्-सुदेशितः मुदर्शित. मार्गःगुप्त्यादि तत्पालनोपायो यस्मिंस्तचया, तथा-' नरगतिरिच्छनिमज्जियमग्ग' नरकतिर्यविवर्जितमार्ग-नरकस्यनरकगते , तिरश्च' तिर्यग्गतेश्च विवर्जित प्रतिरोधितो मार्गो गतिर्येन तादृशम् । तथा-'सयपरित्तसुनिम्मियसारं' सनपवित्रसूनिर्मितसार गर्वपवित्राणि-सर्गणि पावनानि निर्मितानिन्मृपिहितानि साराणि-प्रधानानि येन तत्तथा, सफलव्रत मर्प उसके लिये हार जैसा बन जाता है और विप भी सुसाधु जैसा हो जाता है-जो नौ कोटि से शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत का पालक होता है। यह ब्रह्मचर्य का ही प्रभाव है जो शत्र भी मित्र बन जाता है। (मन्यसमुदमहोदहितित्य) समस्त सनुद्रों में अतिम स्वयभूरमणममुद्र एक यहत विशाल समुद्र है-इसके जैसे विशाल होने से ससार भी एक महोदधि जैसा है, उससे पार होने के लिये यह ब्रह्मचर्य एक नौका के समान है ॥१॥ (तित्थगरेहिं सुदेसियमग्ग) तीर्थकर भगवतो ने इसके पालने का गुप्ति आदि रूप उपाय कहा है। ( नरगतिरिच्छविधजियमग्ग) इसके प्रभाव से नरकगति और तियश्चगति का मार्ग रुक जाता है (सव्वपवित्तसुनिम्मियसार ) तथा ન જે નવ પ્રકારે શુદ્ધ બ્રહ્મચર્ય વ્રતને આગધડ હોય છે તેને માટે સાપ હાર જે બની જાય છે અને વિષ પણ અમૃત જેવું થઈ જાય છે ग्रहाययन भ प्रभाव 23 स ५ भित्र तय छ, “ सव्वसमुरमहोदहितित्थ " स ममुद्रा २ तिमय भूरभए समुद्र मे घी विशण સમુદ્ર છે–ના જે વિચાળ હોવાથી સ સાર પણ એક મહાસાગર જેવો છે. તેને પાર જવાને માટે આ બ્રહ્મચર્ય એ એક નૌકા જેવું છે કે ૧ ૫ "तित्थगरेहि सुदेसियमग्ग" तीर्थ २ सयानास तेन पादान भाट गुप्ति माह Gपाय मता-या छ " नरगतिरिच्छविवज्जियमग्ग" तेन असावया न२४गति भने ति जतिना भी सटही तय छे “सबपवित्त सुनिम्मियसार" मने तेना प्रमाद सीने पवित्र भने सारभूत मनावी है छ, टते 3 मा व्रत सघणा प्रताने पवित्र १८ उन३ ले “सिद्धविमाणअ वगुयदार" तथा भास गतिनु मन अनुत्तर विमानानु ४० तेनाथी USA जय १००
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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