SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 559
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुवशिनी टीका ४० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् __४५५ भुजाइत्यर्थः, 'रततलोवडयमउयमसल्सुजायलावणपसस्थन्छिद्दजालपाणी । तत्र- 'रत्ततल' रक्ततलो-लोहितम्रतली 'उपइय' उपचितौ-पुष्टौं ' मउय' मृदको कोमलौ ' मसल 'मासलो अदृष्ट नाडी जालौ 'सुजाय ' मुजातीसुनिष्पन्नौ 'लक्रवणपसत्य लक्षण प्रशस्ती-अनेक शुभलक्षणैः प्रक्रप्टो 'अच्छिद्दजाला. अछिद्रजालौ = परस्पर मिलितत्वात् उिदरहितादगुलिप्समुदायपन्तौ पाणी = हस्तौ येपा ते तथा 'पीपरसुजायकोमलवरगुलि' पीचरसुजातकोमलवराष्ट्रालयः = भुपुष्टमुन्दरकोमलाइगुलिवन्त । ततलिणमुइकहलनिद्वणवा' ताम्रतलिनशुचिरुचिरस्निग्ध नसा-ताम्राः = रक्ताः तलिना मतलाः शुचयःनिर्मला: रुचिरा गान्तिमन्तः स्निग्याश-चिकणा नखा येपा ते तथा, 'निद्वपाणिलेहा' स्निग्धपाणिरेखाः = चिकणहस्तरेसायन्तः 'चटपाणिलेहा' चन्द्रपाणिरेखा'= चन्द्र चन्द्राकारा पाणी रेखा येपा ते तथा 'सरपाणिलेहा' भरपाणिरेखाः= होती हैं तथा-(रत्ततलोव इयमउयमसलमुजायलक्खणपसत्य अन्छि राजालपाणी) जिनके दोनों पर लोहित तलियो वाले, पुष्ट भरे हुएकोमलनासे युक्त, मामल-पुष्टअदृष्टनाडीजालवाले, अन्छे रूपमे निम्पन्न हुए, अनेक शुभलक्षगों से प्रशस्त एप छिद्ररहित अगुलियों वाले होते हैं तथा- (पीवरसुजायकोमलवरगुली ) इनकी जो अगुलिया होती हैं वे सुपुष्ट, सुन्दर र कोमल होती हैं ! (ततलिणसुटहरनिद्वनग्वा) इन अगुलियों के जो नख होते है ये तान वर्णवाले होते हे तलिनपतले होते हैं, निर्मल होते हैं, कान्तिमान होते हैं तथा स्निग्ध-चिकने होते हैं । (णिपाणिलेहा) हाथों में जो रेग्वार होती है वे भी चिकनी रोती है । ( चदपाणिलेहा ) तथा इनके हाथो की ये रेखारा कितनीक नो चन्द्राकार होती हैं ( सम्पाणिलेहा) कितनीक मूर्य के आकार की होती परिधा (लागनी ) मभान 4-सा य , तथा " रत्ततलोवइयमउयमसल सुजाय-रस्सण-पसत्य-अन्छिद-जालपाणी" मना नहाय खासगीपणा પુષ્ટ કમળ મામલ-સે તથા કેળવાહિનીઓની જાળ ન દેખી નડાય તેવા સુઘટિત, અનેક શુભ લક્ષણોથી પ્રાપ્ત, અને છિદ્ર રહિત આગળી વાળા खत्य छ, त५ " पीचर-मुजाय-कोमल-कर गुली" तमना लायनी मानियो अपुष्ट, सु४२ गते भ डाय “ततलिणसुइरुइलनिद्धनसो" मारजियोना न तावाशु य तलिन-पाता डाय छ नि हाय छ सुवा भने डन्ति युतीय "णिपाणिलेहो" तेमना थमारे २माया राय ते पण स्नि, सुवाणी डाय छे “चदपाणिले हा" तेमना अपनी सी भासा यन्द्रा२, "सूरपाणिलेहा" 32मी सूर्या२, eals
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy