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________________ सुदर्शनी टोका अ०५ सू० ३ अकल्पनीयनिरूपणम् ८५९ स्वहस्तेनाशनादेहणमित्यर्थः, अयमपरिणताभिधानदोपउक्तः। दायास्यदानेऽपरिणतत्वात् । तथा-आहड ' आहृतम्-स्वपरग्रामादेः साध्वर्थमानीतमशनादिकमाहृतमुच्यते । तदुक्तम्-'सग्गामपरग्गामा आणिय आहट होइ' आया-स्वग्रामपरग्रामादानीतमाहत भवति । इति । तया-'मट्टियोवलित्त ' मृत्तिकोपलिप्तम्= मृत्तिकया, उपलक्षणत्वाज्जतुगोमयादिना चोपलिप्त सद्यद्भिद्यदोयते तत् , उद्भिनमित्यर्थः । तथा 'अच्छिज्ज ' आच्छेद्य, यदशनादिक स्वामी भृत्यादिभ्य आच्चिय साधुभ्यो ददाति तदशनादिकमान्छेयम् । 'चेव ' चैव-चकार' पुनरर्थक. एवकारो निश्चयार्थः । 'अणिसिद्ध ' अनुसृष्टम् अनेकस्वामिक यदशनादिकम् एक एव ददाति तदनिसृष्टम् , तथा-'ज त' यत्तदशनादिकम् , 'तिहिसु' तिथिपु-शरत्पूर्णिमादि तिथिपु 'जण्णेसु' यज्ञेपु-नागपूजादिपु ' उस्सवेस य' उत्सवेषु च-इन्द्रोत्सवेषु च 'अतो व ' अन्तर्वा-उपाश्रयस्याभ्यन्तरे ना, 'वहि गाह ) स्वयग्राह हो-दाता ने जिसे न दिया हो किन्तु अपने ही हाय से जो उठाकर ले लिया गया हो, (आड ) आहृत हो-स्व और पर के ग्राम आदि से जो साधु के निमित्त लाया गया हो, ( मट्टिओवलित्त ) मृतिकोपलिप्त हो जो आहार किसी कुभ आदि मे रखकर मिट्टी से. गोरर से, तथा लाख आदि से वद किया हुआ हो और देते समय उस मिट्टी आदि को हटाकर बाहिर किया गया हो, (अच्छेज्ज चेव) अच्छेन्य हो-भृत्यादिकों से छीनकर दाता जिसे साधु के लिये दे रहा हो-जिस आहार के अनेक स्वामी हो परन्तु एक ही व्यक्ति उसको साधु के लिये दे रहा हो, ऐसा आहार भी साधु को लेना कर पता नहीं है। तया ( ज त ) जो वह आहार ( तिहिसु) शरत्पूर्णिमा आदि तिथियों के समय मे (जण्णेतु ) नागपूजादिक यज्ञों के समय में और सीधी डाय ५ पोताने लाथे की दीधे हाय, “ आहड " माईत હાયસ્વ અને પારકે ગ્રામ આદિમાથી જે સાધુને નિમિત્તે લાવવામાં આવ્યું डाय, “मट्टिओपलित्त" भृत्तिपलिप्त डाय-2 आडा२ ६ पात्र माहिमा મૂકીને માટીથી, ગેમયથી તથા લાખ આદિથી બધ કરેલ હોય અને આપતી मते ते भाटी महिने GA डा२ स डाय, "अच्छेज्ज चेव" मा२३ હોય-નોકર આદિ પાસેથી છીનવીને દાતા જે સાધુને માટે આપતો હોય જે આહારના માલિક અનેક હોય પણ એક જ વ્યક્તિ તે સાધુને માટે આપી २ही डाय, अ२माडा२ ५ वानु साधुने ४५तु नथी तथा “जत" ते भाडा२ " तिहिसु" १२४ पूर्णिमा तिथिमान समये तथा "जण्णेसु"
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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