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________________ सुदर्शिनी टीका १० ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३७३ दुःखैर्व्याप्तमित्यर्थः। तथा 'रगाइसंतागम्ममधणकिलेमचिविखल्लदुटुत्तार' अनादि सन्तानमन्धनक्लेशचिक्खिल्लदुष्टतारम् , तत्र-अनादिः आदि रहितः सन्तानःविस्तारो यस्य तत्तथाभूत यत् नमनन्यन तद्प एप 'रिलेस' क्लेशा दुःख तपमेव चिक्तिल-चर्दमम्तेन दुष्ठ्त्तास-दुस्तर यः स तथा तम् । तथा-'अमर नरविरियनिरयगइगमणकुडिल्परिपट्टविउलवेल ' अमरनरतिर्यटनरस्गतिगमनकुटिलपरिवर्तविपुलवेल-तत्र - अमरनरतिर्यदनरकचतुर्गतिपु-यद् गमन तदेव कुटिला वक्रा परिवर्वा गोलाकारा एर विपुला-विस्तीर्णा वेला-समुद्रनलवृद्धिरूपा यत्र स तथा त, नरकादि चतुर्गतिचक्रभ्रमणपरम्पराभिः समुद्रजलवृद्धिरूपा-- भिर्युक्तमित्याशय । तथा ' हिंसालियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारभकरणकरावणाणुमोयण-अनिहअणिटकम्मपिडियगुरुभरक्तदुग्गजलोधदरनिकोलिज्जमाणउम्मग्गनिम्मग्गदुल्लहतल' हिंसाऽलीकादत्तादानमैथुनपरिग्रहारम्भकरणकारणानुमोदना. प्रविधानिष्टरमपिण्डितगुरुमाराकान्तदुर्गजलोचदूरनियोल्यमानोन्मार्गनिमग्नदुर्लभतलम् , तर-हिंसालियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारम' हिंसाऽलीकाऽदत्तादानतथा (अणाइसताणकम्मय पण फिलेसचिक्खिल्ठु त्तार ) जिसका विस्तार आदि से रहित है ऐसे कर्म धन जन्य क्लेशरूप (चिक्विल्ल) कीचड से यह (दुटुत्तार) दुस्तर बना हुआ है तथा ( अमरनरतिरियनिरयगहगमगकुडिलपरिव विउल) देव, नर, तिर्थव और नरक, इन चार गतियों मे जो जीवोका गमन है वही इस समुद्र को कुटिल गोलाकार विस्तर्ण वेला है, अर्थात् नरकादि चतुर्गतिरूप यह ससार है। इसमें जीवचक्र की तरह परिभ्रमण करते रहते हैं। यह परिभ्रमण की जो परपरा है वही इस समुद्र की जल वृद्धि रूप वेला है। (हि सालिय अदत्तादान मेहुणपरिग्गहार भकरणकरावणाणुमोयग) हिंसा, झूठ, अदत्तादान, मैयुन, परिग्रहरूप आरम्भो का करना गनेस तथा “ अगाइ-सतण-कम्मरण-किलेसचिक्सिल-दुत्तार " मनाहि उभगवन न्य २३५ “चिम्सिल्ल" अयथी ते "दुाळुत्तार" हुस्तर भने छ, तथा “ अमरनरतिरियगइगमणकुडिल्परिवविउलवेल" દેવ, નર, તિર્યંચ અને નરક, એ ચાર ગતિમાં જીવનું જે ગમન થાય છે એ જ આ સંસાર સમુદ્રની કુટિલ ગોળાકાર વિસ્તીર્ણ વેલા છે, એટલે કે નકાદિ ચાર ગતિરૂપ આ સંસાર છે તેમાં ચકની જેમ પરિભ્રમણ કરે છે આ પરિભ્રમણની જે પરંપરા છે તેજ આ સમુદ્રની જળ વૃદ્ધિરૂપ વેલા छ “हिंसालिय-अदत्तादान-मेहुणपरिग्गहार भकरणकरावणाणुमोयण" डिसा, જણ, અદત્તાદાન, મિથુન, પરિગ્રહરૂપ આર જે કરવા, અને તેની અનુમોદના
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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