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________________ सुदर्शिनी टीका अ०४सू० ५ चक्रवतीलक्षणनिरूपणम् ___ _४१५ सुकृतपटोत्तरीया मालम्पयत्= आनाभिलम्बितकण्ठिकावत् प्रलम्बमान', तथा मुकृता गोभनरचनाविशेपयुक्त पटः शाटकः उत्तरीयम् उत्तरीयवस्त्र च येपा ते तथा रचनापिरोपेण परिधृतशाटकोत्तरीया इत्यर्थः, 'मुद्दियापिंगल्गुलिया' मुद्रिकापिगलामुलिका' मुद्रिकाभिः अङ्गुलीयकैः पिगलाः-स्वर्णादिमयत्तात् पीतकान्तयोऽगुलयो येपा ते तथा 'उज्जलनेवत्थरइयचिल्लुगचिरायमाणा' उज्ज्वलनेपध्यरतिदचिल्लगविराजमानाः = उज्ज्वल-निर्मल नेपथ्य वेपः 'पोशाक' इति प्रसिद्धःरतिद मानन्दजनक 'चिल्लग' इति वस्त्र चाकचिक्य, तेन विराजमानाः शोभमानाः, तथा 'तेएण दियोकरोचदित्ता' तेजसा दिवाकरइव दीप्ताः प्रतापेन मूर्यसदृशाः 'सारयनवत्यणियमहुरगभीरनिद्वघोसा' शारदनरस्तनितमधुरगम्भीरस्निग्धघोपा: शारद-शरत्कालिक यन्नवस्तनित-नूतनमेघध्वनिः तद्वन्मधुरो गम्भीर• स्निग्धश्च-हृदयालादकरो घोपा-शब्दो येपा ते तथा 'उप्पण्ण समत्तरयणचकरयणपहाणा ' उत्पनसमस्तरत्नचक्ररत्नप्रधाना'-उत्पन्नानि प्राप्तानि मुद्दियापिंगलगुलिया ) तथा कठ में विविधनणियो से ग्रथित पहिरा हुआ हार जिनके वक्षस्थल पर लटकता रहता है, तथा नाभिप्रदेश पर्यत कठी के समान लटकते हुए उत्तरीयवस्त्रको एव शोभन रचना विशेष से युक्त करके धोती को जो धारण करते है। स्वर्ण आदिकी बनी हुई अगूठियों से युक्त होने के कारण जिनकी हाथो की अगुलिया सदा पीली कातिवाली बनी रहती हैं ( उज्जलनेवत्थ रडयचिल्लगविरायमाणा) उज्वल, आनदजनक एव चिलकती हुई पोशाक से जो सदा विराजमान (रहते हैं ( तेएण-दिवाकरोग्य दित्ता सारय-नवत्यणिय-मदुर-गभीरनिद्धघोसा) तथा जो अपने तेज से सूर्य के जैसे प्रतापशाली होते हैं। तथा जिनका शब्द शरत्काल के मेघ की नवीन ब्वनि के जैसा गभीर और हृदयाह्लादक होता है (उप्पण्णसमत्तरयणचक्करयणपहाणा) तथा ડેકમાં પહેરેલી હોય છે અને વક્ષસ્થળ પર લટકતે હેાય છે તથા નાભિપ્રદેશ સુધી કઠીની જેમ લટતા ઉત્તરીય વસ્ત્રોને તથા સુદર વિશિષ્ટ રચનાથી યુક્ત છેતીને જેઓ ધારણ કરે છે, સુવર્ણ આદિમાથી બનાવેલી વી ટીઓથી યુક્ત હોવાને લીધે જેમના હાથની આંગળીઓ સદા પીળા તેજથી યુક્ત २९ छ, “उज्जलनेवत्थरइयचिल्लगविरायमाणा " Garrqण, मानाय भने यता पाषाथी रेस महा शाली २ डाय छ, “तेएण-दिवाकरोचदित्ता सारय-नत्यणिय-महुर-गभीर-निद्धघोसा" तथा २ पोताना तेथी सूर्य સમાન પ્રતાપશાળી હોય છે, તથા જેમના શબ્દો શરદઋતુના મેઘના નવીન चिनिनाव गली२ मध्यमा भान न ४२नार हाय छ, “उप्पण्ण
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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