Book Title: Prashna Vyakaran Sutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1069
________________ सुदर्शिनी टीका म०५सू० १० जिहवेन्द्रियसंघर'नामफचतुर्थभावनानिरूपणम् ९२९ विक्तस्टुकापायाम्लरसलिन्द्रनीरमानि = तत्र तिक्त-मरीचवत् , पटुक-निम्नवत् , कपायम् आमलफल्यत् , आम्लरसम्=अम्लि 'इमली ' कारत् , लिन्द्र-सशैवाल. पुराणजलवत् , नीरस-विगतरसम् एपा द्वन्द्वस्तानि तथोक्तानि' आस्वाध-उपर्यु तारसविरसादि पानभोजनस्थितानमनोज्ञपापकान् रमानास्वादोत्यर्थः, 'समणेण' श्रमणेन-साधुना ' तेमु' तेपु-उक्तपु 'चमणुन्नपारएसु ' अमनोज्ञपापकेषु 'रसेम' रसेपु तथा-एम्यः 'अन्नेसु ' अन्येषु 'एवमाइएमु ' एवमादिकेपु-एव प्रकारेषु च-अमनोनपापकेपु रसेपुन रोसियत' न रोप्टव्यम् , 'जार' याव स्करणात्-न हीलितव्यम् , 'न निदितव्य, न खिसितव्यम् , न छेत्तव्यम् , न तिक्त रो-चरपरा हो, कटुक-नीम के जैसा कटुवा हो, आमले के जैसा कपाय रसवाला हो, कच्ची री-अमिया के जैसा जो खट्टा हो, लिंद्रशैवालसहित पुराने जलके समान हो, विगतरस हो ऐसे इन उपर्युक्त अरस रिस आदि पनि भोजनमे स्थित अमनोज पापक-अरुचिकारक रसों को आस्वादित करके ( समणेण) मुनि को (तेसु) उन (अमणुनपावएम) अमनोज पापक-अरचिकारक-रसोंमे तथा (अण्णेसु एवामाह एसु रसेसु) इसी प्रकार के और भी इनसे भिन्न रसों मे (न सियच्च जाव चरेज्ज धम्म ) रोप नहीं करना चाहिये । " न हीलियन्व, न निंदियन, न खिसियन, न चिंदियच, न मिंदियव्य, न वहेयन्व, न दुगुडावत्तियावि लम्भा उप्पाएउ" उनकी अवजा नहीं करनी चाहिये, उन्हे देसकर उनपर विसयाना-परोक्ष में निंदा नहीं करनी चाहिये । तथा अमनोज्ञ रमस्थित द्रव्यका छेदन नहीं करना चाहिये, भेदन एव रसलिनीरसाइ ' मीय-मया 4 ती डाय, २०५२२ लाय, ४४४લીમડા જેવા કડવા હોય, આમળા જેવા તુરા હય, કાચી કેરી જેવા ખાટા હોય, હિંદૂ-જે શેવાળયુક્ત પુરાણું પાણી જેવા હોય, વિગત રસ હોય, એવા ઉપર કહેલા અરસ વિરસ આદિ ભેજનેમા રહેલ અમનેઝ પાપક–અરુચિકર सोन मास्वाहन र 'समणेण" भुनि “तेसु" a "अमणुनपावएत" अमना पा५४-मयि सभा तथा “ अण्णेसु एवमाइएसु रसेसु" मेर ५४२॥ मी २सोमा पY " न रुसियन्य जाव घरेज्जपम्म" रोष ७२वो न नही " न हीलियब्व', न निदियव्य, न सिंसियव्य, न छिदियव्य. न भिंदियव्व , न पहेयव्व, न दुगुछावत्तियावि लन्भा उप्पाएउ" भनी अज्ञा ન કરવી જોઈએ, તેમને જોઈને તેમની પક્ષ રીતે નિ દા ન કરવી જોઈએ, તથા અરુચિકર રસવાળા દ્રવ્યનુ છેદન ન કરવું જોઈએ, ભેદન અને નાશ ન કરે प्र ११७

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