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सुदर्शिनी टीफा ५०५ सू ६ परिप्रदविरमणनिरूपणम्
८४१ अविरतिपु-अविरतिरूपेण भगता कथितेपु प्राणातिपातादिपु च, तथा-'अण्णेम य' भन्येषु च ' एवमाउण्मु' एवमादिकेपु-एर पियेषु 'बहुमु हाणेसु ' बहुपु स्थानेषु अनेकविधेषु पदार्येषु सग्याम्याने पु वा चतुस्विंगदादिपु, कीदृशेष्वेषु ? 'जिगपसत्येसु ' जिनमस्तेपु-जिनकथिने पु, अतएप–'अपितहेसु' अपितयेपु-सत्येपु, पुन:-'सासयभामु' शाश्वतभावपु ओघतोऽक्षयस्वभावेपु, अतएक-' अवटिएमु ' आरिश्ते-सर्मदा भाविपु ' सक' शड्का सन्देह, 'कख' काङ्क्षा परमतवाञ्छा 'निरामरित्ता' निराकृत्य-दृरीकृत्य अमणेः, 'सद्दहति' श्रद्दधाति ' मगरओ ' भगवतो जिनम्य ' सासण ' शासनम् कीदृश' सन् अमणो जिनस्य गासन अन्धातीत्याह --- 'अणियाणे ' अनिदान =देवद्ध आदिवान्छारहितः, 'गारवे ' अगोर= दयादिगारवर्जितः, 'अलुढे 'पलब्ध =पिपयेप्पल्रपट' ' अमूढे' अमृढः, तथा-'मणोवयणकाय एकाग्रतारूप प्रणिधानी में (अचिरइसु ) भगवान के द्वारा अविरतरूपसे कथित प्राणातिपात आदिको में तथा (अपणेसु य एबमाइग्सु) और भी उसी तररके दूसरे ( बसु हाणेमु) अनेक पदार्थो मे अयया (जिणे पमत्येसु) चोंतीस आदि मरवास्थानो में जो कि जिनकथिन है और उमी कारण ( अवितहेसु) जिन मे अमत्यता का थोड़ा साभी स्थान नहीं, अपात सर्वया सत्य है, तया (सामयमावेसु) सामान्यकी अपेक्षा जिनका अक्षय स्वभाव है, और इसीसे (अवट्टिासु) जिनकी मत्ता सदा रती है उनमें (सम) शका-सदेह ( कम्व) काना-परमतवाला को (निगकरित्ता) दर करके जोश्रमण (अनियाणे) निदान-देवद्धाटि प्राप्तिकी इच्छा से विहीन बन कर ( अगारवे) ऋद्धयादि गौरव से ररित हो कर ( अलुद्धे) विपयों मे लपटतासे रिक्त होकर और " अविरइसु" भगवान दास भवितउथे अथित प्रातिपात माह तथा " अण्णेसु य एवमाइण्सु" भीत ५५५ मे २ना ' बहसु ठाणेसु" मने पार्थाभा अथवा “जिणपसत्थेसु" यात्रीय माहिमच्या स्थानामा
मिन थित ? मने मे sel “ अवितहेसु" भनामा असत्यतानु १२। ५] स्थान नथी सटो २ मथा सत्य छ, तथा " सासय भावेसु" मामान्यनी अपेक्षा कितना अक्षय श्वनार छ, मने तेथी। “ अवद्विासु २नी सत्ता सहा २ छ, तमनामा “ सक" st-सहन " कस" अक्षा-५२मत पायनाने 'निराकरित्ता' हर उगने भए " अनियाणे " निशान-विहार प्रालिनी Rutथी त मनीने “अगारवे" ऋद्धयादि गौरवथा २डित यन " अलुध्धे” विषयानी साथी हित