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प्रमभ्याकरण हकत्वममकाशयन्नप्यन्तर्जाज्वल्यमानो भवति, तर अमणो बहिः शुष्को समर कान्तिरहितोऽप्यन्तः स्तपोजनितदीप्त्यादेदीप्यमानो भवतीति भार । तथाजलिय यासणो नि' ज्वलितहुताशनइय-पदीप्तानिय तेयसा' तेजसानिरूपतेजसा 'जलते ' ज्वलन्-दीप्यमानः, भावतमोविनाशकत्वात् 'गोसीस पदण पिव ' गोशीपचन्दनमिर 'सीयले शीतला मनस्तापोपशमनात् 'सुगधी न' सुगन्धिना, सरभिगन्धेन शीलमोगध्याव ' हरओ विव' पदक इवन्जलाय इव 'समियभावे ' समिकभारः सम एव समितः, स भानो यस्य सः, अय भाव -यथा इदो वाताभावे तरगाभावेन निम्नोन्नतराहित्येन समाकारतया परि जायतेए) भस्म राशि से छन अग्नि जिस प्रकार ऊपर से अपने दाहकस्व परिणामको प्रकाशित नहीं करती हुई भी भीतरमें जाज्वल्यमान रहा करती है उसी तरहसे यह साधु भी बाहिरसे शुष्ककाय, रूक्ष और कान्तिरहित होता हुआ भी भीतरमें तपजनित दीप्तिसे देदीप्यमान रोता है। तथा-(जलिय यासणोवियतेयसा जलते) प्रदीसबहि जिस प्रकार अपनी प्रभा से चमकती रहती है उसी प्रकार यह भी भावतम का विनाशक होने से ज्ञानरूप तेज से चमकता रहता है। (गोमीसचदणंपिव सीयले ) गोशीर्ष चदन जिस प्रकार शीतल और सुगधित होता है उसी प्रकार यह साधु भी मनस्ताप के उपशमन से शीतल होतो हैं और (सुगधीय हरओविव समियभावे ) शील की सुगंधी से हूद की तरह समभाववाला अर्थात जिस प्रकार जलाशय वाय के अभाव से तरगो के उत्थान पतन से रहित होने के कारण ऊँचा नीचा नहीं रासिच्छन्नेव जायतेए' रामना सा नाय उसी सिम परथी पातानी દાહકતા પ્રગટ કરતી નથી છતા અદર સળગતી પ્રકાશિત રહે છે, તેમ તે સાધુ પણ બહારથી શુષ્ક શરીર વાળે, રૂક્ષ અને કાન્તિ રહિત હોવા છતા ५ ४थी त५ नित तथा दीप्यमान जाय छ " जलिय हुयासणोविव तेयसा जलते " प्रवास मसिम पोताना तथा यती २ छ तम ते प लावतमना विनाश डापाथी ज्ञान ३५ तेथी न्यभरती २७ छ “गो सीसचदणपिव सीयले ' म जोशीष यह शीत भने सुगधित डाय छ ते मारे मनना तानु शमन थपाने र शीतल डाय छ भने “ सुग घियहरओविव समियभावे" शनी सुगधथी सरोवरना समान समसार વાળ હોય છે, એટલે કે જેમ વાયુના અભાવે તરગોના ઉત્થાન તથા પત નથી રહિત હોવાને કારણે સરોવરની સપાટી ઊંચીનીચી લાગતી નથી પણ