________________
सुदर्शिनी टीका म० ५ २०५ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ८८७ सचित्ताचित्तमिश्रकेपु 'दन्वेहि ' द्रव्येषु 'चिरागयगए ' विरागतां गतम् मूर्छा. राहित्यं प्राप्त , 'सचयओ' सञ्चयतः-सरयकरणात् 'विरए' पिरतः 'मुत्ते' मुक्ता बायाभ्यन्तरपरिग्रहरहितः, 'लहुए' लघुका-गौरवमयत्यागात् , 'निरकखे' निरवकाक्षा आमादक्षा जितत्वात् , 'जीरियमरणासपिप्पमुत्ते' जीवितमरणागाविनमुक्ता जीरिताशामरणागाभ्या रहितः, 'धीरे धीर:-बुद्धिमान् , ' निस्सध' सन्धिरहित चातिपरिणाम यवन्ठेदाभागरात् , 'निधण' निण-निरतिचारम् ' चरित्त' चारित्र-सयम ' कायेण' कायेनकायल्यापारेण न तु मनोरयमाण 'फासयते ' स्पृशन् , तथा-'सयय ' सततम् 'अयप्पज्झाणजुत्ते' अध्यात्मध्यानयुक्त 'निहुए ' निभृत =उपशान्तः 'एगे' एका रागादिसहायार्जितः 'धम्म' धर्म-अवचारित्ररक्षण 'चरेज्ज ' चरेत्-अनुपालयेत् ।।सू०५॥ साधु (मचित्ताचित्तमीसएहिं दचेहिं विरागयगण) सचित्त, अचित्त
और मिश्र द्रव्यों में मृा रहितपने को प्राप्त होकर (सचयओ विरए) सचय करने से विरक्त हो जाता है और ( मुत्ते) नाह्य और आभ्यतर परिग्रह से रहित हो जाता है । इस तरह (लहुए ) गरिव जय के लाग से लघु यना हुआ श्रमण (निरवकखे) आकाक्षा से वर्जित होने के कारण (जीवियमरणासविप्पमुत्ते) जीवन की आशा और मरण की भयसे ररित हो जाता है । इस प्रकार (धीरे) इन समस्त पूर्वोक्त विशेपणों से विशिष्ट बना हुआ तत्वज्ञ श्रमण (निस्सध) चारित्रपरिणाम की सवि-व्यवच्छेद के अभाव से (निव्वणं) निरतिवार (चरित्त) चारित्रसयम को (कारण) काय के व्यापार से, नही की मनोरथ मात्र से (फासयते) धारण कर (अज्झप्पज्झाणजुत्ते ) अध्यास्मध्यान में लवलीन धनता हुआ (निहुए) उपशान्त भाव से सपन्न तत्वज्ञ वो ते साधु "सचित्ताचित्तमोसएहि दव्वेहिं विरागय गए' सचित्त, मचित्त मन भित्र द्रव्योमा भमत्व रहितताने प्रासरीने " सचयओ विरए" सड ४२पाथी वि२४d is onय छ भने " मुत" मा भने मास्यन्तर परियडथी २हित य नय छ मा रीते " लहुए " गौरपत्रयना त्यागी ६५ बनेर श्रम निरवकखे" साक्षायी २डित डावाने को “जीवियमरणा सविप्पमुत्ते" पननी मा भने भनी माथी २डित थ तय छ मा शत “धीरे" ते सघा विशेषथी युत आने dra श्रम " निस्स घ " सारित्र परिणामनी सधि-व्यवछेने मला " नियण " नितिया२ " चरित्त" यारित्र-सयमन 'कारण " अयन व्यापारथी-भना२यथा नही-" फासयते" धारण ४शने “अझप्पज्झाणजुत्ते " मध्यात्मध्यान सीन मनीने "निहुए"