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सुशिनी टीका १०५ सू। ६ सयताचारपार फस्य स्थितिनिरूपणम् ८८९ 'पारयण ' प्राचन ' भगाया' भगाता ' सुकहिय' मुफथितम् , ' अनहिय' आत्महितम् , ' पेचाभारिय ' मेत्यभाविकम् 'आगमेमिभद्द' आगमिष्यद्भद्रं ‘सुद्ध ' शुद्ध ' नेयाउय' नेयायिम् ' अडिल ' अकुटिलम् 'अणुत्तर ' अनुत्तर 'सव्वदुश्वपापाण' सर्वदुःसपापाना ' पिउसमण ' व्युपशमनम् । एपा व्या ख्या पूर्व गता । ' तस्स' तस्य-अपरिग्रहनामकस्य ' चरिमस्स' चरमस्य अन्ति मस्य ' मारदारस्स' सरद्वारस्य 'इमा पच भावणाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः पञ्च भावना 'हुति ' भवन्ति । किमर्थं भवन्ति ? इत्याह-'परिग्गहवेरमणरक्षणयाए ' परिग्रहविरमणरक्षणार्थताये-अपरिग्रहपरिरक्षणार्थमित्यर्थः ॥ सू. ६॥ व्रत की रक्षा के लिये ( भगवया सुकरिय) भगवान ने कहा है । यह (अत्तहिय ) आत्मा का हितकारक है। (पेचाभाविय) परलोक में भी शुभ फल का दाता है । इसी निमित्त से यह (आगमेसि भद ) भविप्यत् काल में कल्याण प्रद है यह (सुद्ध) सर्वथा निर्दोप है । (नेयाउय) वीतराग सर्वज्ञ एव हितोपदेशक प्रभु द्वारा भापित होने से न्याय सपन्न है। (अकुटिल) प्रजुभाव का जनक होने से अकुटिल है। (अणुत्तर) सर्व श्रेष्ठ होने से अनुत्तर है। तथा (सव्यदुक्खपावाण) समस्त प्रकार के दुःख जनक ज्ञानावरणीय आदि अष्ठविध कर्मों का (चिउसमण) उपशमक है। (तस्स चरिमस्स सवरदारस्स) उस अन्तिम सचरद्वार की (इमा पचभावणाओ) ये वक्ष्यमाण पाच भावनाए हैं जो (परिग्गवेरमणरक्खणठयाए हुति) परिग्रह विरमण व्रत की रक्षा करने वाली होती है ।। सू०६ ॥ षया सुकहिय" लगवान ४ छ " अत्तहिय" आत्मानु हित॥२४ छ “पेशा भाविय" ५२ मा ५१ शुम ३॥ ना३ छे से रथे ते “आगमेसि भह "अविष्यमा स्याहायी छे, ते "सुद्ध" तदन निर्दोष छ " नेयाउय" વીતરાગ સર્વજ્ઞ અને હિતોપદેશક પ્રભુ દ્વારા કથિત હોવાથી તે ન્યાયયુક્ત છે " अकुडिल" मनुभावनु न बाथी ते टिम छ “ अणुत्तर " सर्वश्रेष्ठ डापाथी त मनुत्त२ छे तथा “सव्वदुक्सपानाण" समस्त प्रारना
Hari शानाय RAILE -10 प्रा२ना उर्भानु “ विउसमण " 6पशमन ४२नार छ 'तस्स चरिमस्स सवग्दारस्स" ते मन्तिम स १२६२नी " इमा पचभावणाओ " 20 प्रमाणे पाय मापनासा छ २ "परिगग्गहवेरमणरक्षण ट्रयाए हुति " परियड वि२म प्रतनी २१४२नारी य छ । सू ॥ म ११२