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प्रश्नध्याकरणसूत्र ये सुरभिदुरभया-शुभा शुभाः शब्दास्तेषु यद्रागडेप तन, 'पणिरियप्पा' प्रणिहि तात्मा-सटतात्मा 'साह ' साधु 'मणश्यणकागगुत्ते' मनोवचनकायगुप्तः, 'सबुडे' सहतः-सपरवान् 'पणिहिइदिए ' प्रणिहितेन्द्रियः-मणिहिता प्रशीकृतः इन्द्रियो येन तयाभूतः सन् 'धम्म' धर्म 'चरेज' चरेत् ।। मू० ७ ॥ द्वितीयां भावनामाह-वीय" इत्यादि--
मूलम्-बीय चक्खु इदिएण पासिय रुवाणि मगुण्णभद्द. गाइं सचित्ताचित्तमोसगाईकट्टे पोत्थे य चित्तकम्मे लेप्पकम्मे रूप अशुभ शब्दों में रागद्वेप करने को परिणति से रहित हो जोता है। इस प्रकार की स्थिति से सपन्न हुआ (माह ) साधु (मणवयायगुत्त) अपने मन, वचन और काय को शुभाशुभ के व्यापार से सुरक्षित कर लेता है। और (सबुडे ) सवर से युक्त पनार (पणिहिइदिए) अपनी श्रोत इन्द्रिय को वश में करके (धम्म) चारित्ररूप धर्म को (चरेज) पालन करने वाला बन जाता है। __ भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने परिग्रह विरमणव्रत की प्रथम भावना का विवेचन किया है। इसमें उन्होंने यह कहा है कि सावुको इष्ट श्रोनेन्द्रिय के विपय में ललचाना नही चाहिये और अनिष्ट विषय में द्वेष नहीं करना चाहिये ।इस प्रकार से इस भाग्नासे भावितमुनि अपने चत की रक्षा और उसकी सुस्थिरता करता हआ सवर सेयत बन जाता है और चारित्ररूप धर्म की परिपालना अच्छी तरह से करसकता है।मू०७।। यप्पा" भना३५ शुल मने पशुम शोभा रागद्वेषनी परिणतिथी रात थ/ जय छ 21 मारनी स्थितिथी युस्त " साहू" साधु "मणवयकायगुत्ते" પોતાના મન, વચન અને કાયને શુભાશુભ પ્રવૃત્તિથી સુરક્ષિત કરી નાખે છે सन" सबुडे ' सवरथी युत मनाने ' पणिहिइ दिए" चातानी श्रीन्द्रियन ११ शन “धम्म" यात्रि३५ धनु "चरेज " पासन ४२नार थ य छ
ભાવાર્થ-આ સૂત્રદ્વારા પરિગ્રહ વિરમણ વ્રતની પહેલી ભાવનાનું વિવેચન કર્યું છે તેમાં તેમણે એ બતાવ્યું છે કે સાધુએ શ્રોન્દ્રિયના ઈષ્ટ વિષયમાં લલચાવું જોઈએ નહી અને અનિષ્ટ વિષય પ્રત્યે દ્વેષ કર જોઈ એ નેહા આ રીતે આ ભાવનાથી ભાવિત થયેલ નિ પિતાના વ્રતની રક્ષા તથા સુથિ રતા કરતા કરતે સવરથી યુક્ત થઈ જાય છે, અને ચારિત્રરૂપ ધર્મનું સારી शते पालन | श छ ॥ सू०७ ॥